Class 12th History Chapter 2. राजा, किसान और नगर
Class 12th History Chapter 2. राजा, किसान और नगर
NCERT Solutions For Class 12th History Chapter- 2 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ :– हर विद्यार्थी का सपना होता है कि वे अपनी कक्षा में अच्छे अंक से पास हो ,ताकि उन्हें आगे एडमिशन या किसी नौकरी के लिए फॉर्म अप्लाई करने में कोई दिक्कत न आए . जो विद्यार्थी आठवीं कक्षा में पढ़ रहे है उनके लिए यहां पर एनसीईआरटी कक्षा 12 इतिहास अध्याय 2. (राजा, किसान और नगर) के लिए सलूशन दिया गया है.जोकि एक सरल भाषा में दिया है .क्योंकि किताब से कई बार विद्यार्थी को प्रश्न समझ में नही आते .इसलिए यहाँ NCERT Solutions For Class 8 History Chapter 2 Kings, Farmers and Towns दिया गया है वह आसन भाषा में दिया है .ताकि विद्यार्थी को पढने में कोई दिक्कत न आए .इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए निचे आपको एनसीईआरटी समाधान कक्षा 8 इतिहास अध्याय 2 राजा, किसान और नगर दिया गया है .
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | HISTORY |
Chapter | Chapter 2 |
Chapter Name | राजा , किसान और नगर |
Category | Class 12 History Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TextualQuestions) |
उत्तर– हड़प्पा के नगरों की व्यापक खुदाइयाँ हुई हैं। इन्हीं खुदाइयों से हड़प्पा सभ्यता के शिल्पकला उत्पादनों के प्रमाण मिले हैं। इसके विपरीत आरंभिक ऐतिहासिक नगरों की व्यापक खुदाई संभव नहीं है, क्योंकि इन क्षेत्रों में आज भी लोग रहते हैं। फिर भी यहाँ से विभिन्न प्रकार के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। इन नगरों में शिल्प उत्पादन के कुछ अन्य प्रमाण अभिलेखों से मिले हैं।
आरंभिक नगरों में शिल्पकला उत्पादन–(i) इन स्थलों से उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे तथा थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। इन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र अर्थात् काले रंग की पॉलिश वाले मिट्टी के बर्तन (N.B.P.W.) कहा जाता है। इनका प्रयोग संभवत: धनी लोग करते होंगे।
(ii) यहाँ से सोने, चाँदी, हाथी दाँत, ताँबे तथा शीशे के बने गहनों, उपकरणों, हथियारों, पकी मिट्टी, सीप आदि के प्रमाण भी मिले हैं।
(iii) दानात्मक अभिलेखों से पता चलता है कि इन नगरों में धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, सुनार, लोहार आदि शिल्पकार रहते थे। लोहार लोहे का सामान बनाते थे। हड़प्पा के नगरों से लोहे के प्रयोग के प्रमाण नहीं मिले हैं।
(iv) उत्पादकों तथा व्यापारियों ने अपने संघ बनाए हुए थे जिन्हें श्रेणी कहा जाता था। ये श्रेणियाँ कच्चा माल खरीदकर सामान तैयार करती थीं और उसे बाज़ार में बेचती थीं।
उत्तर– बौद्ध तथा जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में महाजनपद के नाम से 16 राज्यों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि महाजनपदों के नाम इन ग्रंथों में एक समान नहीं हैं, तो भी वज्जि, मगध, कौशल, कुरु, पांचाल, गांधार तथा अवंति आदि नाम एक जैसे हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि ये महाजनपद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण रहे होंगे।
विशिष्ट अभिलक्षण-महाजनपदों के कुछ विशिष्ट अभिलक्षण निम्नलिखित थे
(1) अधिकांश महाजनपदों पर एक राजा का शासन होता था। परंतु गण और संघ के नाम से विख्यात राज्यों पर कई लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध इन्हीं गणों से संबंधित थे। वज्जि संघ की भाँति कुछ राज्यों में भूमि सहित अनेक आर्थिक स्रोतों पर राजा लोगों का सामूहिक नियंत्रण होता था।
(2) प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जो प्रायः किले से घिरी होती थी। किलेबंद राजधानियों के रख-रखाव, प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक साधनों की आवश्यकता होती थी।
(3) लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से ब्राह्मणों ने संस्कृत में धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की। इनमें शासक सहित अन्य सामाजिक वर्गों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया। यह अपेक्षा की जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ग से ही होंगे।
(4) शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेट वसूल करना माना जाता था।
(5) धन जुटाने के लिए पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करना भी वैध उपाय माना जाता था।
(6) धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तंत्र तैयार कर लिए। शेष राज्य अभी भी सहायक सेना पर : निर्भर थे। सैनिक प्रायः कृषकवर्ग से भर्ती किए जाते थे।
उत्तर– सामान्य लोगों ने अपने जीवन की लिखित जानकारी विरले ही छोड़ी। इसलिए उनके जीवन का पुनर्निर्माण करने के लिए विभिन्न प्रकार के स्रोतों का सहारा लेना पड़ता है। इनमें से कुछ स्रोत निम्नलिखित हैं
(1) खुदाइयों में विभिन्न प्रकार के अनाजों के दाने तथा जानवरों की हड्डियाँ मिली हैं। इनसे लोगों के भोजन की जानकारी मिलती है।
(2) भवनों तथा पात्रों के अवशेषों से उनके घरेलू जीवन का पता लगाया जाता है।
(3) अभिलेखों में विभिन्न प्रकार के शिल्पों तथा शिल्पकारों का उल्लेख मिलता है। इनसे साधारण लोगों के आर्थिक जीवन की झाँकी मिलती है।
(4) कुछ अभिलेखों तथा पांडुलिपियों में राजा-प्रजा संबंधी, जैसे विभिन्न प्रकार के करों से अनुमान लगाया जाता है कि सामान्य लोग सुखी थे अथवा दु:खी।
(5) बदलते कृषि-यंत्र तथा अन्य उपकरण साधारण लोगों के बदलते जीवन पर प्रकाश डालते हैं। उदाहरण के लिए लोहे के प्रयोग से अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि करना आसान हो गया होगा और उत्पादन बढ़ गया होगा। इससे सामान्य कृषक समृद्ध बने होंगे।
(6) व्यापार संघों से उत्पादकों के हितों की रक्षा का संकेत मिलता है।
(7) इतिहासकार प्रचलित लोककथाओं से भी सामान्य लोगों के जीवन की जानकारी प्राप्त करते हैं।
उत्तर– पांड्य सरदार को दी जाने वाली वस्तुओं में हाथी दाँत, सुगंधित लकड़ी, हिरणों के बालों से बने चंवर, मधु-चंदन, गेहूँ, सुरमा, हल्दी, इलायची आदि कई वस्तुएँ शामिल हैं। इनके अतिरिक्त नारियल, आम, जड़ी-बूटी, फूल, प्याज, गन्ना, फल, सुपारी, केला तथा कई पशु-पक्षी भी उपहार में दिए गए। इसके विपरीत दंगुन गाँव की वस्तुओं में घास, जानवरों की खाल, कोयला, नमक तथा अन्य खनिज पदार्थों, मदिरा, खादिर वृक्ष के उत्पाद, फूल, दूध आदि शामिल हैं।
समानता-फूलों को छोड़कर इन दोनों सूचियों में कोई विशेष समानता नहीं जान पड़ती। यह संभव है दंगुन गाँव की भाँति पांड्य सरदार भी उपहार में मिलने वाले जानवरों की खाल का प्रयोग करता हो।
असमानता- इन वस्तुओं की एक लंबी सूची में असमानता दिखाई देती है। सबसे बड़ी असमानता तो इन वस्तुओं की प्राप्ति के तरीके में है। पांड्य सरदार को लोग खुशी-खुशी और नाच-गाकर वस्तुएँ उपहार में देते थे। इसके विपरीत भूमिदान से पहले दंगुन गाँव के निवासियों को अपने यहाँ की वस्तुएँ राज्य तथा उसके अधिकारियों को देनी पड़ती थी, क्योंकि यह उनका कर्तव्य था।
अथवा
भारत के राजनीतिक और आर्थिक इतिहास को समझने के लिए अभिलेख साक्ष्यों की सीमाओं की आलोचनात्मक परख कीजिए।
उत्तर– अभिलेखशास्त्री अभिलेखों का अध्ययन करने वाले विद्वान होते हैं। इनकी कुछ मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं
(1) कभी-कभी अक्षरों को बहुत हलके ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ना कठिन होता है।
(2) अभिलेख नष्ट भी हो सकते हैं जिससे अक्षर लुप्त हो जाते हैं।
(3) अभिलेखों के शब्दों के वास्तविक अर्थ के बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान हो पाना भी सदैव सरल नहीं होता क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं। |
(4) अभिलेख हज़ारों की संख्या में प्राप्त हुए हैं, परंतु सभी के न तो अर्थ निकाले जा सके हैं और न ही उनके अनुवाद किए गए हैं।
(5) अनेक अभिलेख और भी रहे होंगे जिनका अस्तित्व ही मिट गया है। इसलिए जो अभिलेख अभी उपलब्ध हैं, वे संभवतः कुल अभिलेखों का केवल एक अंश है।
(6) इस संबंध में एक और मौलिक समस्या भी है। वह यह है कि जिस चीज़ को हम आज राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानते हैं वह सब कुछ अभिलेखों में अंकित नहीं है। उदाहरण के लिए, खेती की दैनिक प्रक्रियाएँ और दैनिक जीवन के सुख-दु:ख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता, क्योंकि अभिलेख प्राय: बड़े और विशेष अवसरों का ही वर्णन करते हैं।
(7) अभिलेख सदा उन्हीं व्यक्तियों के विचार व्यक्त करते हैं जो उन्हें बनवाते थे। इसलिए वास्तविकता जानने के लिए इन अभिलेखों का आलोचनात्मक अध्ययन आवश्यक है।
अथवा
मौर्यों की प्रशासन व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– मौर्य प्रशासन के लगभग सभी प्रमुख अभिलक्षणों की जानकारी अशोक के अभिलेखों से मिलती है-जैसे राजा-प्रजा संबंध, राजनीतिक केंद्र, प्रमुख अधिकारी तथा उनके कर्तव्य इत्यादि। अभिलेखों में आधुनिक पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत से लेकर आंध्र प्रदेश, ओडीसा और उत्तराखंड तक हर स्थान पर एक जैसे संदेश उत्कीर्ण किए गए थे। मौर्य साम्राज्य के इन तथा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षणों का वर्णन इस प्रकार है
1. पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र- मौर्य साम्राज्य का सबसे बड़ा केंद्र मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र था। इसके अतिरिक्त अशोक के अभिलेखों में साम्राज्य के चार प्रांतीय केंद्रों का उल्लेख भी मिलता है। ये केंद्र थे-तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि (तोशाली) तथा सुवर्णगिरि।
2. असमान शासन-व्यवस्था-मौर्य साम्राज्य बहुत ही विशाल था। इसके अतिरिक्त साम्राज्य में शामिल क्षेत्र बxड़े विविध और भिन्न-भिन्न प्रकार के थे–कहाँ अफ़गानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र और कहाँ उड़ीसा के तटवर्ती क्षेत्र। इतने विशाल तथा विविधता भरे साम्राज्य का प्रशासन एकसमान होना संभव नहीं था। परंतु यह संभव है कि सबसे कड़ा प्रशासनिक नियंत्रण साम्राज्य की राजधानी तथा उसके आसपास के प्रांतीय केंद्रों पर रहा हो।
3. प्रांतीय केंद्रों का चयन-प्रांतीय केंद्रों का चयन बड़े ध्यान से किया गया था। तक्षशिला तथा उज्जयिनी दोनों लंबी दूरी वाले महत्त्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर स्थित थे। कर्नाटक में सुवर्णगिरि (अर्थात् सोने के पहाड़) सोने की खदान के कारण महत्त्वपूर्ण था।
4. आवागमन को सुचारु बनाना–साम्राज्य के संचालन के लिए स्थल और जल दोनों मार्गों से आवागमन का सुचारु बना रहना अत्यंत आवश्यक था। राजधानी से प्रांतों तक जाने में कई सप्ताह या महीने लग जाते थे। ऐसे में यात्रियों के लिए खान-पान और उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि सेना सुरक्षा का प्रमुख माध्यम रही होगी।
5. समिति तथा उप-समितियाँ-मेगस्थनीज़ ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति तथा छः उपसमितियों का : उल्लेख किया है
(i) इनमें से एक उपसमिति का काम नौसेना का संचालन करना था।
(ii) दूसरी यातायात और खान-पान का संचालन करती थी।
(iii) तीसरी का काम पैदल सैनिकों का संचालन करना था।
(iv) चौथी का अश्वारोहियों, पाँचवीं का रथारोहियों तथा छठी का काम हाथियों का संचालन करना था।
दूसरी उपसमिति के जिम्मे कई काम थे; जैसे हथियारों को ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था करना, सैनिकों के लिए भोजन तथा जानवरों के लिए चारे का प्रबंध करना और सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों तथा शिल्पकारों की नियुक्ति करना।
6. धम्म महामात्रों की नियुक्ति-अशोक ने अपने साम्राज्य को संगठित बनाए रखने का प्रयास किया। ऐसा उन्होंने धम्म के प्रचार द्वारा भी किया। धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण तथा सार्वभौमिक थे। अशोक का मानना था कि धम्म का पालन करके लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। अत: धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्र नामक विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई। इस बात का उल्लेख भी अभिलेखों में मिलता है।
उत्तर– सुविख्यात अभिलेख शास्त्री डी० सी० सरकार ने सत्य ही कहा है कि अभिलेखों में भारतीयों के जीवन के प्रत्येक पक्ष की झाँकी प्रस्तुत की गई है। इस संबंध में कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं|
1. राज्य–विस्तार का निर्धारण– अभिलेखों से हमें किसी राजा के राज्य–विस्तार का पता चलता है। प्राचीन राजा स्तंभ केवल अपने राज्य की सीमा के भीतर ही स्थापित करवाते थे। अत: जिन स्थानों पर जिस राजा के अभिलेख मिले हैं, वे उस राजा के राज्य का ही भाग माने जा सकते हैं।
2. राजाओं के नाम-अभिलेखों से हमें अनेक राजाओं के नामों का पता चलता है। इन नामों का पहले किसी अन्य स्रोत से पता न चल सका था। अशोक के लिए ‘देवनाम् प्रियः’ तथा ‘प्रियदर्शी’ (पियदस्सी) आदि नाम भी प्रयोग किए गए, ऐसा अशोक के अभिलेखों से ही पता चलता है।
3. ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी-अभिलेखों से हमें अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। समुद्रगुप्त के जीवन की सभी घटनाएँ इलाहाबाद प्रशस्ति से जानी जा सकती हैं। अशोक के शिलालेखों से कलिंग युद्ध तथा उसके भीषण परिणामों का पता चलता है। इसी प्रकार चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, राजा भोज, पुलकेशिन वितीय आदि अनेक राजाओं के जीवन के उतार-चढ़ाव अभिलेखों के कारण ही प्रकाश में आए हैं। |
4. राजाओं के चरित्र की जानकारी-अभिलेख संबंधित राजाओं के चरित्र की झाँकी भी प्रस्तुत करते हैं। अशोक का प्रजापालक होने का प्रमाण उसके अभिलेखों से ही मिलता है। अभिलेख उसे दयावान, पशु-रक्षक तथा परिवार-प्रेमी भी सिद्ध करते हैं। इलाहाबाद प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को महान योद्धा तथा विद्वान बताया गया है।
5. भू-व्यवस्था और प्रशासन की जानकारी-कुछ राजाओं और सामंतों द्वारा किए गए भूमिदान के अभिलेख विशेष महत्त्व के हैं। इनसे प्राचीन भारत की भू-व्यवस्था और प्रशासन के बारे में उपयोगी सूचनाएँ मिलती हैं। ये अभिलेख अधिकतर ताम्र-पत्रों पर लिखे गए हैं। जो प्राचीनकाल की सभी भाषाओं में लिखे मिलते हैं। इनमें भिक्षुओं, ब्राह्मणों, मंदिरों, विहारों, जागीरदारों, अधिकारियों आदि को दिए गए गाँवों, भूमियों तथा राजस्व स्रोतों का विवरण मिलता है।
6. काल निर्धारण-अभिलेख ऐतिहासिक तिथियाँ तथा युद्ध काल को निर्धारित करने में बड़ा योगदान देते हैं। काल का पता अभिलेखों की लिपि और लिखने के ढंग से चल जाता है।
7. साहित्यिक स्तर की जानकारी-अभिलेख की भाषा से उस काल के साहित्यिक स्तर का पता चलता है। हमें यह भी पता चलता है कि देश के किस-किस भाग में संस्कृत, पाली, प्राकृत, तमिल, तेलगू आदि भाषाएँ प्रचलित थीं और उनका क्या स्तर था।
8. भाषाओं तथा धर्म संबंधी जानकारी-अभिलेखों की भाषा हमें तत्कालीन धर्म की जानकारी कराती है। प्राचीनकाल में संस्कृत भाषा हिंदू धर्म की प्रतीक समझी जाती थी। इसी प्रकार प्राकृत भाषा बौद्ध धर्म से बँधी हुई थी।
9. कलाप्रियता की जानकारी-अभिलेख, शिलाओं तथा गुफ़ाओं को तराश-सँवार कर खोदे गए हैं। इनसे तत्कालीन कलाप्रियता का परिचय मिलता है। अशोक के अभिलेख मौर्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। |
10. सामाजिक वर्गों की जानकारी-अभिलेख हमें तत्कालीन सामाजिक वर्गों की जानकारी देते हैं। हमें पता चलता है, उस समय शासक वर्ग के अतिरिक्त बुनकर, सुनार, धोबी, लौहकार, व्यापारी, कृषक आदि कई वर्ग थे।
सच तो यह है कि अभिलेख भारतीय जीवन तथा संस्कृति के दर्पण हैं।
उत्तर– उत्तर मौर्यकाल में राजत्व के जिन विचारों का विकास हुआ उनकी प्रमुख विशेषता थी-राजा का दैविक स्वरूप। राजा उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिए स्वयं को देवी-देवताओं के साथ जोड़ने लगे। मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले कुषाण शासकों ने (लगभग प्रथम शताब्दी ई० पू० से प्रथम शताब्दी ई० तक) इस तरीके का भरपूर प्रयोग किया। कुषाण इतिहास की रचना अभिलेखों तथा साहित्य परंपरा के माध्यम से की गई है। जिस प्रकार के राजधर्म (राजत्व) को कुषाण शासकों ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया, उसका सर्वोत्तम प्रमाण उनके सिक्कों और मूर्तियों से प्राप्त होता है।
कुषाण शासक-(1) उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास स्थित माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ मिली हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इन मूर्तियों के माध्यम से कुषाण स्वयं को देव-तुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे। कई कुषाण शासकों ने अपने नाम के आगे ‘देवपुत्र’ की उपाधि भी लगाई थी। वे संभवत: उन चीनी शासकों से प्रेरित हुए होंगे, जो स्वयं को ‘स्वर्गपुत्र’ कहते थे।
(2) कुषाण शासकों के सिक्कों पर भी एक राजा की भव्य प्रतिमा दिखाई गई है। सिक्के के दूसरी ओर एक देवता का चित्र है। ऐसे सिक्के भी कुषाणों को देव-तुल्य दर्शाने के लिए जारी किए गए थे।
II. गुप्त शासक-(1) राजत्व के विचारों में दूसरा विकास गुप्तकाल में हुआ। चौथी शताब्दी ई० में गुप्त साम्राज्य सहित कई बड़े : साम्राज्यों के साक्ष्य मिलते हैं। इनमें से कई साम्राज्य सामंतों पर निर्भर थे। ये सामंत अपना निर्वाह स्थानीय संसाधनों द्वारा करते थे जिसमें भूमि पर नियंत्रण भी शामिल था। सामंत अपने शासकों का सम्मान करते थे और आवश्यकता के समय उन्हें सैनिक सहायता भी देते थे। कुछ शक्तिशाली सामंत राजा भी बन जाते थे। दूसरी ओर यदि राजा दुर्बल होते थे तो वे अपने से अधिक शक्तिशाली शासकों के अधीन हो जाते थे।
(2) गुप्त शासकों के इतिहास के निर्माण में साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता ली गयी है। साथ ही कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंसा में लिखी गई प्रशस्तियों का सहारा भी लिया गया है। इतिहासकार इन प्रशस्तियों के आधार पर ऐतिहासिक तथ्य निकालने का प्रयास करते हैं परंतु इनमें राजाओं की बढ़-चढ़कर प्रशंसा की गई है जिससे ऐतिहासिक तथ्य दबकर रह गए हैं। उदाहरण के लिए इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति को ही लीजिए। इसके लेखक हरिषेण ने समुद्रगुप्त को बहुत ही शक्तिशाली सम्राट बताया है। वह तो यहाँ तक लिखता है; | “धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों तथा शुभकार्यों से संपन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया था। वे परमात्मा पुरुष हैं।”
ऐसी प्रशंसा के पीछे राजस्व के नए विचार ही झलकते हैं।
अथवा
छठी शताब्दी ई० पू० से छठी शताब्दी ई० तक किसानों द्वारा कृषि उत्पादन वृद्धि के लिए अपनाए गए तरीकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर– 600 ई० पू० से 600 ई० के दौरान राजाओं द्वारा करों की माँग बढ़ने लगी थी। करों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसान उपज बढ़ाने के लिए उपाए ढूँढ़ने लगे। फलस्वरूप कृषि के तौर-तरीकों में परिवर्तन आने लगे। |
1. हल का प्रचलन-उपज बढ़ाने का एक तरीका हल का प्रचलन था। हल का प्रयोग छठी शताब्दी ई० पू० से ही गंगा और कावेरी की घाटियों के उर्वर कछारी क्षेत्र में होने लगा था। भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों द्वारा उर्वर भूमि की जुताई की जाने लगी। इसके अतिरिक्त गंगा की घाटी में धान की रोपाई से भी उपज में भारी वृद्धि होने लगी। भले ही इसके लिए किसानों को कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती थी।
2. कुदाल का उपयोग–यद्यपि लोहे के फाल वाले हल के प्रयोग से फ़सलों की उपज बढ़ने लगी, तो भी ऐसे हलों का उपयोग उपमहाद्वीप के कुछ ही भाग तक सीमित था। पंजाब तथा राजस्थान के अर्ध-शुष्क प्रदेशों में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग बीसवीं शताब्दी में शुरू हुआ। जो किसान उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर और मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे, उन्होंने खेती के लिए कुदाल का उपयोग किया। कुदाल ऐसे इलाकों के लिए कहीं अधिक उपयोगी था।
3. कृत्रिम सिंचाई-उपज बढ़ाने का एक और तरीका कृत्रिम सिंचाई का प्रयोग था। सिंचाई के लिए कुओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के पानी का प्रयोग किया जाने लगा। इनका विकास लोगों ने व्यक्तिगत रूप से भी किया और कृषक समुदायों ने आपस में मिलकर भी किया। व्यक्तिगत रूप से तालाब, कुएँ और नहरें आदि सिंचाई साधन प्रयोग करने वाले लोग प्रायः राजा अथवा प्रभावशाली लोग थे।
कृषि के नए तौर-तरीकों का प्रभाव-खेती की इन नयी तकनीकों से उपज तो बढ़ी, परंतु इससे इसके कारण खेती से जुड़े लोगों में भेद बढ़ने लगे। बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है जो किसानों की विभिन्न सामाजिक स्थितियों को दर्शाता है। पाली भाषा में छोटे किसानों और ज़मींदारों के लिए ‘गृहपति’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। बड़े-बड़े ज़मींदार और ग्राम-प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे। वे प्रायः किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम-प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था। आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख मिलता है; जैसे कि वेल्लाल या बड़े जमींदार, हलवाहा या उल्वर और दास अणिमई। यह भी संभव है कि इन विभिन्नताओं का आधार भूमि का स्वामित्व, श्रम तथा नयी प्रौद्योगिकी का उपयोग रहा हो। ऐसी परिस्थिति में भूमि का स्वामित्व महत्त्वपूर्ण हो गया था।
राजा किसान और नगर के अति लघु उत्तरीय प्रश्न
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