Class 11 Sociology Chapter 3 – सामाजिक संस्थाओं को समझना
NCERT Solutions For Class 11 Sociology Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना – आज हम आपको कक्षा 11 पाठ 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना के प्रश्न-उत्तर (Understanding Social Institutions Question Answer) के बारे में बताने जा रहे है । जो विद्यार्थी 11th कक्षा में पढ़ रहे है उनके लिए यह प्रश्न उत्तर बहुत उपयोगी है . यहाँ एनसीईआरटी कक्षा 11 समाजशास्त्र अध्याय 3 (सामाजिक संस्थाओं को समझना) का सलूशन दिया गया है. जिसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए आप Class 11th Sociology Chapter 3 सामाजिक संस्थाओं को समझना के प्रश्न उत्तरों को ध्यान से पढिए ,यह आपकी परीक्षा के लिए फायदेमंद होंगे.
Textbook | NCERT |
Class | Class 11 |
Subject | Sociology |
Chapter | Chapter 3 |
Chapter Name | सामाजिक संस्थाओं को समझना |
पाठ्य पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
प्रश्न 1. ज्ञात करें कि आपके समाज में विवाह के कौन-से नियमों का पालन किया जाता है ? कक्षा में अन्य विद्यार्थियों द्वारा किए गए प्रेक्षणों से अपने प्रेक्षण की तुलना करें तथा चर्चा करें।
उत्तर- अगर हम ध्यान से अपने समाज को देखें तो यहां पर विवाह के कई नियमों का पालन होता है जैसे कि अन्तर्विवाह, बहिर्विवाह, अनुलोम, प्रतिलोम इत्यादि । अन्तर्विवाह का अर्थ है कि व्यक्ति केवल अपने समूह तथा जाति में ही विवाह करवाएगा। अगर वह इस नियम को तोड़ेगा तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाएगा। बहिर्विवाह का अर्थ है व्यक्ति को अपने परिवार, गोत्र, रक्त समूह इत्यादि के अन्दर विवाह करवाना वर्जित है तथा उसे इनसे बाहर विवाह करवाना पड़ेगा। किसी भी समूह में व्यक्ति अपने रक्त सम्बन्धियों में विवाह नहीं करवा सकता है। अनुलोम विवाह का अर्थ है उच्च जाति के लड़के का विवाह निम्न जाति की लड़की से तथा प्रतिलोम विवाह का अर्थ है उच्च जाति की लड़की का विवाह निम्न जाति के लड़के से परन्तु ऐसे विवाह प्राचीन समय में प्रचलित थे आजकल नहीं। आजकल अन्तर्जातीय विवाह भी सामने आ रहे हैं अर्थात् अलग-अलग जातियों के सदस्यों का विवाह। इस प्रकार हमारे समाज में विवाह के लिए इन नियमों का पालन होता है। इसके साथ ही एक विवाह, बहु-विवाह भी प्रचलित थे। परन्तु आजकल केवल एक विवाह ही प्रचलित है । बहुविवाह को कानून ने प्रतिबन्धित कर दिया है।
उत्तर- चाहे हम हमारे दैनिक जीवन में परिवार को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रूप में देखते हैं परन्तु फिर भी परिवार, उसकी संरचना, मानक इत्यादि अलग-अलग समाजों में एक जैसे ही होते हैं। चाहे आधुनिक समाज तथा पश्चिमी समाजों में विवाह करवाने की प्रथा कम हो रही है परन्तु फिर भी यह व्याप्त है । यह तो आधुनिक समाजों का अनजाना – सा परिणाम है। इसी प्रकार अगर हम देखें तो आर्थिक प्रक्रियाओं की वजह से परिवार तथा नातेदारी में कई प्रकार के परिवर्तन आ रहे हैं परन्तु परिवर्तन की दिशा तथा गति सभी समाजों में एक समान नहीं है । परन्तु यहाँ पर परिवर्तन का अर्थ इस बात से नहीं लिया जाना चाहिए कि संस्थाओं के नियम तथा संरचना पूर्णतया खत्म हो गए हैं। परिवर्तन तो एक सर्वव्यापक तथा निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो हमेशा चलती रहती है।
उत्तर- जब हम छोटे बच्चे तथा विद्यार्थी थे तो यह सोचते थे कि हम बड़े होकर इस प्रकार का कार्य करेंगे । यहाँ पर स्पष्ट रूप से कार्य उस रोज़गार का सूचक है जिसमें हमें वेतन प्राप्त होगा । आधुनिक समय में यह कार्य का सबसे अधिक समझ में आने वाला अर्थ है। वास्तव में यह एक सरल विचार है। कई प्रकार के कार्य वेतन वाले रोज़गार के विचार के सूचक नहीं होते। उदाहरण के लिए अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में होने वाले अधिकतर कार्य किसी औपचारिक रोज़गार के आंकड़ों में नहीं आते हैं । अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का अर्थ है नियमित रोज़गार के क्षेत्र से हटकर किया जाने वाला कार्य व्यवहार । इसमें कभी कभार कार्य या सेवा के लिए नकद भुगतान किया जाता है परन्तु इसमें वस्तुओं तथा सेवाओं का लेन-देन अवश्य होता है । इस प्रकार हम कार्य को मानसिक तथा शारीरिक परिश्रम के साथ किए जाने वाले वैतनिक अथवा अवैतनिक कार्यों के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिनका उद्देश्य मनुष्यों की आवश्यकता की चीज़ों का उत्पादन करना होता है।
कार्यों की विद्यमान श्रेणी – श्रम विभाजन – कार्यों की विद्यमान श्रेणी आधुनिक समाज में श्रम विभाजन है। चाहे यह प्राचीन समाज में भी पाया जाता था, परन्तु आधुनिक समाज में यह काफ़ी अधिक तथा हरेक क्षेत्र में पाया जाता है। चाहे औद्योगिक क्षेत्र, कृषि का क्षेत्र हो अथवा शिक्षा का क्षेत्र, हरेक क्षेत्र में कार्य तथा श्रम विभाजन पाया जाता है। आजकल तो हरेक व्यक्ति को किसी न किसी क्षेत्र में विशेषता हासिल होती है जिस कारण श्रम विभाजन भी समाज में बढ़ गया है। आजकल कार्य की स्थिति में भी परिवर्तन देखा गया है। पहले सभी उत्पादन घरों में ही हो जाता था परन्तु अब यह फैक्टरी में होता है जहां उद्योगपति सारा फ़ायदा ले जाता है तथा वह ही केन्द्र-बिन्दु भी होता है । कार्य हरेक क्षेत्र में बदले थे तथा बदल रहे हैं। उदाहरण के तौर पर प्राचीन समय में कृषि हलों से की जाती थी, परन्तु आजकल यह आधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से हो रही है । आजकल उत्पादन बाज़ार की आवश्यकताओं के अनुसार करना आवश्यक हो गया है।
उत्तर- अधिकार व्यक्ति की वह सामाजिक मान्यता प्राप्त माँगें होती हैं जिन्हें राज्य का संरक्षण प्राप्त होता है। इस प्रकार व्यक्ति की उन माँगों को अधिकार कहते हैं जिन्हें राज्य का संरक्षण तथा समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। कई बार तो उन माँगों को भी अधिकार का दर्जा दे दिया जाता है जिन्हें सरकार अथवा राज्य का संरक्षण प्राप्त नहीं होता है। साधारणतया अधिकारों को दो प्रकारों में बाँटा गया है तथा वे हैं-
(i) नैतिक अधिकार (Moral Rights)
(ii) वैधानिक अधिकार (Legal Rights)
(i) नैतिक अधिकार (Moral Rights) – जो अधिकार व्यक्ति की भावना पर आधारित होते हैं उन्हें नैतिक अधिकार कहा जाता है। चाहे इस प्रकार के अधिकार के पीछे कोई वैधानिक शक्ति नहीं होती परन्तु फिर भी अगर कोई उन्हें न माने तो उसे समाज में अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता । उदाहरण के तौर पर हरेक माता-पिता का यह नैतिक अधिकार है कि उनके बच्चे उनकी वृद्धावस्था में उनकी सेवा करें। अगर उनके बच्चे ऐसा नहीं करते तो उन्हें समाज में नफरत की दृष्टि से देखा जाता है।
(ii) वैधानिक अधिकार (Legal Rights) – यह वह अधिकार है जो देश के हरेक नागरिक को सरकार अथवा राज्य द्वारा दिए गए हैं तथा जिनको न मानने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जाता है । हरेक व्यक्ति को कई मौलिक अधिकार, राजनीतिक अधिकार, आर्थिक तथा सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं । इन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त होता है तथा इन्हें राज्य द्वारा भी नहीं छीना जा सकता।
यह अधिकार हमारे जीवन को गहरे रूप से प्रभावित करते हैं। व्यक्ति को जीवन के हरेक क्षेत्र में अधिकार दिए गए हैं तथा इनके कारण ही हमारा जीवन खुशहाल होता है । अगर व्यक्ति के पास यह अधिकार न हों तो उसका जीवन अन्धकारमय हो जाएगा । सोचिए अगर यह अधिकार न हों तो हमारा जीवन बिना अध्यापक के विद्यालय जैसा हो जाएगा। इस प्रकार यह हमारे जीवन को गहरे रूप से प्रभावित करते हैं।
उत्तर- जब समाजशास्त्र धर्म का अध्ययन करता है तो यह इस बात को पता करने का प्रयास करता है कि धर्म का
जैसे और सामाजिक संस्थाओं के साथ क्या सम्बन्ध है ? वैसे शुरू से ही धर्म का राजनीति और शक्ति से काफ़ी करीबी रिश्ता रहा है। उदाहरण के तौर पर समय-समय पर सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए कई धार्मिक आन्दोलन शुरू हुए कि लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध आन्दोलन अथवा जाति प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन । धर्म किसी एक या दो व्यक्तियों की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती बल्कि इसका सार्वजनिक स्वरूप भी होता है। धर्म का यह सार्वजनिक स्वरूप ही समाज तथा संस्थाओं के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण होता है। मैक्स वैबर ने तो धर्म के आर्थिक संस्थाओं के साथ सम्बन्धों को भी दर्शाया है।
उत्तर- विद्यालय एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जो एक बच्चे को इस योग्य बनाती है कि वह समाज की मुश्किल स्थितियों का सामना डटकर कर सके। परिवार से निकलने के बाद बच्चे का सामना विद्यालय नाम की सामाजिक संस्था से होता है। विद्यालय में वह शिक्षा ग्रहण करके अपने जीवन तथा समाज से तालमेल बिठाने का प्रयास करता है।
अगर हम ध्यान से देखें तो विद्यालय एक कच्चे हीरे को तराशे हुए हीरे का रूप देता है । जब हमारे माता – पिता हमें विद्यालय में प्रवेश दिलाते हैं तो हमें अपने परिवार के अतिरिक्त किसी वस्तु का भी ज्ञान नहीं होता है। विद्यालय में हम अपने अध्यापकों तथा सहपाठियों के सम्पर्क में आते हैं। उनके साथ बैठना, खेलना, पढ़ना हमें अच्छा लगता है। हम अपने अध्यापक गणों के व्यक्तित्व से बहुत ही प्रभावित होते हैं तथा तमाम आयु उन्हें याद रखते हैं। तमाम आयु हमें अपने विद्यालय, कक्षा, सामूहिक हॉल, खेल के मैदान, अपने अनुभव, प्रेक्षण इत्यादि याद रहते हैं । हमें अपने अध्यापकों, सहपाठियों से इतना स्नेह हो जाता है कि हम हमेशा उनकी कमी महसूस करते हैं।
विद्यालय ही हमें इस योग्य बनाता है कि हम समाज में व्याप्त मुश्किलों का सामना डट के कर सकें । विद्यालय हमारा समाजीकरण करता है तथा हमें इस योग्य बनाता है कि हम अपने आने वाले जीवन में उन्नति कर सकें तथा समाज की प्रगति में अपना योगदान दे सकें।
उत्तर- यह सच है कि सामाजिक संस्थाएँ परस्पर एक-दूसरे के सम्पर्क में रहती हैं क्योंकि कोई भी संस्था अकेले कार्य नहीं कर सकती तथा सभी आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं कर सकती हैं। उदाहरण के लिए अगर हम विद्यालय के वरिष्ठ छात्र हों तो हम देखेंगे कि परिवार तथा विद्यालय नामक संस्थाएँ एक-दूसरे के सम्पर्क में रहती हैं। परिवार हमारी शिक्षा का सम्पूर्ण व्यय उठाता है तथा समय-समय पर विद्यालय से हमारी प्रगति के बारे में पूछता रहता है। विद्यालय तथा परिवार के साथ-साथ समाज की अन्य संस्थाएँ हमारा समाजीकरण करती हैं, हमें समय-समय पर मुश्किलें हल करने के ढंग बताती रहती हैं जिससे हमारे व्यक्तित्व को एक निश्चित आकार मिलता है तथा हम अच्छा जीवन जीने के योग्य बनते हैं।
समाज में बहुत-सी संस्थाएँ व्याप्त हैं जो सामाजिक नियन्त्रण का कार्य भी करती हैं। कानून, न्यायालय इत्यादि व्यक्ति को विचलित व्यवहार करने से रोकती हैं। साधारणतया हम अपनी स्वेच्छा से इनके नियन्त्रण में रहते हैं तथा इन्हें पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि समाज इन्हें समय-समय पर पुनः परिभाषित करता रहता है।
सामाजिक संस्थाओं को समझना अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न
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