NIOS Class 10 Psychology Chapter 26 सम्पूर्ण अस्तित्व का पोषण: भारतीय दृष्टिकोण
NIOS Class 10 Psychology Chapter 26 सम्पूर्ण अस्तित्व का पोषण: भारतीय दृष्टिकोण – बहुत से विद्यार्थी हर साल NIOS Class 10 की परीक्षा देते है ,लेकिन बहुत से विद्यार्थी के अच्छे अंक प्राप्त नही हो पाते जिससे उन्हें आगे एडमिशन लेने में भी दिक्कत आती है .जो विद्यार्थी NIOS Class 10 कक्षा में पढ़ रहे है उनके लिए यहां पर एनआईओएस कक्षा 10 मनोविज्ञान अध्याय 26 (सम्पूर्ण अस्तित्व का पोषण: भारतीय दृष्टिकोण) के लिए सलूशन दिया गया है.
यहा जो NCERT Solutions For Class 6 History Chapter 26. Nurturing the Whole Being: An Indian Perspective दिया गया है वह आसन भाषा में दिया है .ताकि विद्यार्थी को पढने में कोई दिक्कत न आए . इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है .इसलिए आप NIOS Class 10 Psychology Chapter 26 सम्पूर्ण अस्तित्व का पोषण: भारतीय दृष्टिकोण के प्रश्न उत्तरों को ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे.
NIOS Class 10 Psychology Chapter 26 Solution – सम्पूर्ण अस्तित्व का पोषण: भारतीय दृष्टिकोण
प्रश्न 1. त्रिगुण की अवधारणा स्पष्ट कीजिए तथा जीवन-यापन के तरीके बताइए ।
उत्तर – मनोविज्ञान मानव व्यक्तित्व और विकास का अध्ययन करता है। भारतीय विद्वानों ने भी इस पर काफी सोचा है। श्रीमद्भागवत गीता में योगीराज कृष्ण ने अर्जुन को कर्म का उपदेश देते हुए पूर्ण विकसित व्यक्तित्व के 26 गुणों का उल्लेख किया है।इन विविध गुणों में भी तीन प्रमुख गुणों की विस्तार से व्याख्या की है। ये तीन प्रमुख गुण निम्नवत् हैं-
(क) सतोगुण (सत्व गुण),
(ख) रजोगुण ( राजस गुण),
(ग) तमोगुण ( तामस गुण) ।
सत्व गुण प्रकाश का द्योतक है
राजस गुण गति का द्योतक है
तमस गुण आलस्य का द्योतक है।
त्रिगुण, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी और प्रकृति के अन्य तत्वों से मिलकर बनते हैं। सभी में इन तीनों गुणों का एक मिश्रण होता है।
प्रकृति से आलस्य का संकेत होने के कारण, तमस गुण निम्न स्तर का, राजस गुण मध्य स्तर का और सत्व गुण उच्चतम स्तर का माना जाता है। गीता में ही कहा गया है कि लोग गुणसम्मत ही व्यवहार करते हैं और बरतते हैं। मानव का विकास अक्सर तमस से राजस और राजस से सत्वगुण की ओर जाता है।योग ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति तीनों ही गुणों से उच्चतम स्तर (अवस्था) में पहुँच पाता है (सकता है) इन तीनों गुणों को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है-
(क) सात्विक – इस गुण से व्यक्ति संयमी और मिताचारी होता है। प्रत्येक दिन यौगिक क्रियाएं करते हुए सिद्ध होता है। वह काम पूजा के रूप में करता है। सात्त्विक मनुष्य सभी को प्यार करता है। असल में, वह सभी को परेशान करता है। वह सबसे प्यार करता है और निःस्वार्थ भाव से सभी को सहयोग करता है।
कबीर, मीरा, नानक, हजरत निजामुद्दीन आदि सात्विक गुणों वाले लोग हैं।
(ख) राजसिक – राजसिक गुण वाले व्यक्ति गतिमान, बहुत क्रियाशील और काम से प्यार करते हैं। काम न होने पर ऐसा व्यक्ति अजीब तरह से निराश होता है। वह मनोरंजन पसंद करता है और मसालेदार चटपटा भोजन पसंद करता है। ऐसे लोग एक जगह नहीं बैठ सकते; वे हर समय कुछ करते रहते हैं।
(ग) तामसिक – तमोगुणी लोग काम करना पसंद नहीं करते। अक्सर सुबह देर से उठता है। जीवन में ऐसा व्यक्ति अधिक सफल नहीं होगा। ना ही दूसरे लोग ऐसे लोगों को पसंद नहीं करते। रहते हैं और अस्वच्छ रहते हैं।
लेकिन प्रत्येक व्यक्ति में पूर्वोक्त तीनों गुणों का एक मिश्रण होता है, उनकी मात्रा अलग-अलग होती है। लोगों में सात्विक गुणों की प्रधानता होती है, राजसिक गुणों की तथा तामसिक गुणों की। उपर्युक्त तीनों ही गुण एकान्तिक नहीं होते; दूसरे शब्दों में, हर व्यक्ति में कुछ मात्रा में तीनों ही गुण होते हैं।
व्यक्तित्व बनाने के लिए इन तीनों गुणों में एक संतुलन होना बहुत महत्वपूर्ण है। राजसिक गुण व्यक्तित्व बनाने में बहुत अच्छे हैं, लेकिन तामसिक गुण को कम से कम विकसित होने देना चाहिए ताकि एक कुशल, परिपक्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाया जा सके।
प्रश्न 2. पंचकोश क्या है? इनकी अवधारणा स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- तैत्तरीय उपनिषद् में शरीर के पांच कोशों की अवधारणा का उल्लेख मिलता है। ये पंचकोश निम्नवत् हैं-
(क) अन्नमय कोश, (ख) प्राणमय कोश, (ग) मनोमय कोश, (घ) विज्ञानमय कोश, (ङ) आनन्दमय कोश
तैत्तरीय उपनिषद ने पंचकोशीय अवधारणा को समझाते हुए कहा कि अन्नमय कोश से आनन्दमय कोश तक पहुंचने के पाँच स्तर हैं। ये पांचों कोश एक ही समय में मौजूद रहते हैं, लेकिन व्यक्ति इनमें अलग-अलग समय में अपने विकासक्रम में पहुंचता है।
इस विचार के अनुसार, दैवी स्फुलिंग मानव अस्तित्व का कारण है। आत्मा इस स्फुलिंग का नाम है। पंचकोश में ये पाँच स्तर आत्मा को घेरते हैं।
हमारी शरीर वास्तव में एक अन्नपूर्ण कोश है। मानव शरीर जीवित कोश की ऊर्जा है। इसे मनोमय कोश कहा जाता है क्योंकि यह भावनाओं और मानवीय संवेगों से बना है। व्यक्ति की शक्ति, विचार, चिन्तन, ज्ञान, अंतरदृष्टि और समझ बनती है व्यक्ति का विज्ञानमय कोश | पांचवाँ और अंतिम आनंदमय कोश रचनात्मकता का प्रदर्शन करता है। प्रसन्नता का अनुभव कराता है, जो व्यक्ति को परमानन्द की स्थिति तक पहुँचाने में मदद करता है। इन कोशों के समग्र प्रभाव से मनुष्य निरंतर सत्य की खोज और उसकी खुशी का अनुभव कर सकता है।
(क) अन्नमय कोश– यह अन्नमय कोश कहलाता है क्योंकि व्यक्ति का शरीर व्यक्तित्व का बाह्य हिस्सा है और व्यक्ति बिना शरीर के अस्तित्वहीन है। यह अन्नमय कोश केवल भोजन से पोषित होता है, जो गर्भ में माता से लिया जाता है और पिता से लिया जाता है। यह कोश मरने पर भोजन बन जाता है।
अन्न ही न्नमय कोश बनाता है। प्राणी खाने से पोषण प्राप्त करता है और मरने पर खाद के रूप में जमीन में मिलकर फिर से भोजन तत्व बन जाता है। पाचन के बाद शरीर रस, रक्त और मज्जा में बदल जाता है। अन्नमय कोश स्वस्थ भोजन और स्वास्थ्यप्रद व्यायाम के बिना विकसित नहीं होता। व्यक्ति के स्वस्थ विकास के लिए स्फूर्ति, धैर्य और अच्छा स्वास्थ्य आवश्यक हैं जिस व्यक्ति में ये गुण हैं, वह काम कुशलता से करता है। वास्तव में, व्यक्ति का शरीर ईश्वर की आराधना का एक साधन है। उसके कर्तव्यों और कार्यों को पूजा जाता है। पूरी लगन और निष्ठा से इसे पूरा करना चाहिए।
यह स्पष्ट है कि मानव शरीर में पांच मूलभूत तत्व हैं। इनमें जल, अग्नि, वायु, आकाश और पृथ्वी शामिल हैं। हड्डियाँ शरीर के ठोस पदार्थ हैं, और ऊतक पृथ्वी से बना है। शरीर में मौजूद रक्त सहित सभी द्रव पदार्थ जल तत्व हैं। शरीर का तेज तापमान एक अग्नि तत्व है। पेट में बनने वाली गैस आकाश तत्व है, और कोशिकाओं के बीच आकाश तत्व है। विकास के साथ ये पाँच घटक ही चरमावस्था तक पहुँचते हैं।
इन पाँचों तत्वों का पाचन तंत्र भोजन को बदलता है। जो व्यक्ति का शरीर विकसित करता है। मृत्युरूप में इन पाँचों तत्वों का विघटन होता है, और फिर ये पांचों तत्व अपने मूलस्रोत में बदल जाते हैं।
(ख) प्राणमय कोश- जीव विज्ञानियों ने शरीर क्रिया तंत्र को प्राण वायु आवरण के रूप में परिभाषित किया है। ये शरीर क्रियाएं श्वसन क्रिया के कारण होती हैं। इसीलिए इसे प्राणवायु आवरण कहा है प्राणमय कोश के अन्तर्गत पाँच प्राण होते हैं-
(i) प्राण – यह प्रत्यक्षीकरण रूप है उसमें ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा एकत्र किए गए उद्दीपकों का प्रत्यक्षीकरण व नियंत्रण होता है।
(ii) अपान – उत्सर्जन – इसमें शरीर में अस्वीकृत सभी पदार्थ मल, मूत्र, पसीना अपान प्राण सूचक हैं।
(iii) उतान- विचारना ( सोचना) इसमें मनुष्य में अपने सोच को ऊंचाई तक ले जाने की क्षमता व नए नियम का मूल्यांकन या प्रतिपादन की क्षमता आती है। इसी में स्वाध्याय या स्वतः शिक्षा की क्षमता जुड़ी है।
(iv) समान – पाचन यह भोजन पचाने का कार्य करता है।
(v) वितरण – वह शक्ति जिससे खाना रक्त के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों में पहुंचता है यह भी स्पष्ट है (और यह जीवन की वास्तविकता है) कि इन पांचों तत्वों में से एक, सामर्थ्य, कमजोर हो जाता है। प्राणों के ठीक से काम नहीं करने से शरीर पर प्रभाव पड़ता है, जिससे व्यक्ति बीमार हो जाता है प्राणमय कोश का विकास सक्रिय रूप से स्फूर्ति, शरीर की चुस्ती, ईमानदारी, अनुशासन, नेतृत्व, व्यक्तित्व आदि से होता है।
(ग) मनोमय कोश- व्यक्ति का मन एक मनोमय संग्रहालय है। प्राण के विभिन्न कार्यों या परिणामों का प्रभाव व्यक्ति के शरीर पर पड़ता है, जबकि व्यग्रता में व्यक्ति व्यथित, परेशान हो जाता है। अपने अंगों की संवेदना को पहचानने का एकमात्र उपाय मन है। यह कोश अतीत के अच्छे और बुरे अनुभवों को याद दिलाता है। वास्तव में, व्यक्ति के शरीर और मन का बहुत गहरा संबंध है। उदाहरण के लिए, दमा (श्वास) और सीरोसिस (यकृत अकुंचन) जैसे रोगों का कारण मानसिक होता है, इसलिए इन्हें मनोदैहिक रोगों की श्रेणी में रखा जाता है। Mee मानसिक शक्ति को बढ़ाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना और अपने लक्ष्यों को पूरा करना फायदेमंद होता है।
(घ) विज्ञानमय कोश– यह बुद्धि विवेक का क्षेत्र है जहां व्यक्ति की समझ विकसित होकर उनके निर्णय को प्रभावित करती है।
(i) संग्राहक अंग व्यक्ति को मानसिक सामान्यतया और बाहरी उद्दीपक प्रदान करते हैं। संवेगी अंगों द्वारा उनकी प्रतिक्रिया सम्प्रेषित की जाती है। पांच संवेगी अंगों से अलग-अलग उद्दीपन मिलते हैं। ये परस्पर अलग हैं। लेकिन उनकी समग्र अनुभूति मानस से अलग नहीं है। बुद्धि निर्णय ले सकती है। यह बुद्धि ही मन को उद्दीपक से अलग करता है और मन को प्रतिक्रिया की संरचना बताता है। फिर मन अनुभूति को सुख-दुख से अलग करता है।
यह बुद्धि ही है जो विचारों को शक्ति देती है। यह निर्णय व्यक्ति को मन से विरोध करने पर भी फायदेमंद होता है। जैसे रोग निवारक हवा का स्वाद कटु है, मन उसे पसंद नहीं करता, लेकिन बुद्धि सोच-समझकर उसे लेती है। औषधि को लेने के बाद लाभ मिलता है।
यही कारण है कि एक कहावत प्रचलित है कि बड़ों का कहना (नापसंद होने पर भी) आंवले खाने से बाद में लाभ होता है। इसी तरह शरीर कुछ अनैच्छिक क्रियाएँ भी करता है, जैसे कांटा चुभने पर हाथ हटा लेना, आग में पांव पड़ने पर पैर उठा लेना, आदि, जो शरीर की त्वचा को चुभता है और गर्म उद्दीपकों को मन तक ले जाता है। मन इसका जवाब जानने के लिए बुद्धि का उपयोग करता है।
बुद्धि मस्तिष्क को अपने पूर्वानुभवों के आधार पर निर्देश देती है, जिससे मस्तिष्क पेशियों तक पहुँचता है और पेशियां क्रियाशील होकर बचाव का आचरण करता है। कांटा लगने पर हाथ उठाना या आंच पर पांव पड़ने पर पांव उठाना इसी बचाव का लक्षण है।
(ii) मन हमेशा सोचता रहता है। यदि हम विचारधारा को एक बाल्टी जल से तुलना करें तो मन को एक नदी मान सकते हैं जिसमें निरंतर विचारधारा का पानी बहता रहता है। किसी एक चिन्तन में गति नहीं होती, लेकिन जब कई चिन्तन धाराएं प्रवाहित होती हैं, तो इस मन रूपी नदी की गति और शक्ति दोनों बढ़ जाती हैं और ऐसा व्यक्ति अत्याचारी हो जाता है। दरअसल, मन और बुद्धि पूर्वानुभव और ज्ञान के भंडार हैं। यह संग्रह ही लोगों की अलग-अलग धर्मों में क्या करना चाहिए बताता है।CO
(iii) मन को अक्सर भावनाओं का केंद्र माना जाता है, और बुद्धि भावनाओं के अनुकूल वातावरण की जांच करती है। जबकि बुद्धि नए स्थानों की खोज करती है और नए अवसर पैदा करती है, भावनाएं पुराने स्थानों तक ही पहुँच पाती हैं।
(iv) बुद्धि और मन एक-दूसरे से अलग हैं, लेकिन मन गतिशील है। क्योंकि बुद्धि वह है जो मन की प्रवाहशीलता के बाद भी निर्णय लेता है।जब कोई व्यक्ति शाकाहारी या मांसाहारी भोजन करना चाहता है, तो उसका विचार मन कहलाता है, लेकिन जब वह निर्णय या संदेह में है, तो यह बुद्धि में बदल जाता है।
आप कह सकते हैं कि मन को बुद्धि में बदल सकते हैं, इसी प्रकार बुद्धि में बदल सकते हैं। जैसे मन और बुद्धि विचारों से बनते हैं, यह विभेदात्मक विवरण भी क्रियात्मक है (यह सिर्फ समझने के लिए है)। जबकि बुद्धि नई खोज के क्षेत्र में जाती है, मन पूर्वानुभव तक सीमित रहता है।
(ङ) आनन्दमय कोश– वास्तव में, यह हर कोश के भीतर का स्तर है। यह इच्छाओं का घर है। व्यक्ति की अर्ध-चेतनावस्था में ये इच्छाएं रहती हैं। यही परमानन्द या खुशी की अवस्था है। इसलिए कहा गया है कि एक बार स्थिति में पहुंचने पर, चाहे वह नींद की हो या स्वप्न की हो, व्यक्ति अनवरत प्यार और शाति का अनुभव करता है।
यह मानसिक स्तर ही बुद्धि को नियंत्रित करता है क्योंकि व्यक्ति की इच्छाएं ही बुद्धि के कार्यों को निर्देशित करती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि सभी कोशों के विकास की स्थिति में व्यक्ति के अन्तर्गत और बाहरी जगत में सामंजस्य स्थापित होता है। यह सामंजस्य ही खुशी और आनंद का मूल है। सामंजस्य के प्रयास में प्रार्थना, ध्यान और जप शामिल हैं।
आत्मा इन पांचों कोशों (स्तरों) के केंद्र में सूक्ष्म रूप से स्थित है, इसलिए इन्हें बाहरी आवरण कहा जाता है। जो इन्हें पहनने वाली आत्मा (आत्मा) से अलग है, यानी आत्मा इन पांच स्तरों से अलग है।
प्रश्न 3. महर्षि अरविन्द के विचार में चेतना के स्तरों की चर्चा कीजिए।
उत्तर- श्री अरविन्द कहते हैं कि सभी व्यक्ति में दो प्रकार के तंत्र समान रूप से कार्य करते हैं: संकेन्द्रित तंत्र और लम्बाकार तंत्र। आवरणों की तरह संकेन्द्रित तंत्र हैं। इसका सबसे बाहरी स्तर भौतिक शरीर, प्राणिक शरीर और मानसिक आवरण का ज्ञान है। ये तीनों प्रकार की चेतना एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। आन्तरिक मानस, जो परम ऊर्जा या विश्व चेतना से संबंधित है, से बना है।
आत्मिक अस्तित्व, जो परम शक्ति का स्फुलिंग है और हम सभी में विद्यमान है, अंतिम केन्द्र भी कहा जाता है। इसे आत्मा भी कहते हैं।
लंबे तंत्र में कई स्तर हैं, जो सीढ़ी की तरह हैं। इसका स्तर निम्नतम से उच्चतम (सच्चिदानंद) तक है।
सरल शब्दों में मनुष्य ने कई स्तरों का विकास किया है। उसका शरीर और मानस अभी पूरा विकसित नहीं हुआ है। उसकी चेतना को विकास की बहुत सी कड़ियों को पार करना है और चेतना का उच्चतम स्तर पर पहुंचना है, जिसमें अद्भुत शक्ति और ज्ञान मिलता है।
प्रश्न 4. पांच कोशों के विकास की पद्धतियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- भोजन की नियमितता, उचित आहार, उपयुक्त व्यायाम और खेल-कूद जैसे चलना, दौड़ना, आसन और सूर्य नमस्कार अन्नमय कोश के विकास में सहायता करते हैं।प्राणमय कोश को श्वास और प्राणायाम से लाभ मिलता है। गुणवत्तापूर्ण साहित्यिक रचनाओं, कहानियों, कविताओं का अध्ययन मनुष्य के मानसिक कोश को स्वस्थ बनाने में सहायक होता है। वाद-विवाद, समस्या समाधान, पढ़ने के तरीके, शोध कार्य, किताबों का मूल्यांकन, प्रसिद्ध लोगों से साक्षात्कार आदि बुद्धि को चुनौती देने वाली क्रियाएँ विज्ञानमय कोश का निर्माण करती हैं। इससे व्यक्ति को देश, समाज और दुनिया भर में अपनी पहचान बनाने में सहायता मिलेगी। यह खुशहाल कोश के विकास में सहायक है। चिन्तन मनन करके व्यक्ति अपनी चेतना की सीमा को सूर्य, चांद और ब्रह्माण्ड तक ले जा सकते हैं। इस तरह से हम अपनी स्वयं की चेतना या ब्रह्माण्ड की चेतना तक पहुंच सकते हैं।
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