NIOS Class 10 Psychology Chapter 9 विकास की प्रकृति और इसके निर्धारक
NIOS Class 10 Psychology Chapter 9. विकास की प्रकृति और इसके निर्धारक – ऐसे छात्र जो NIOS कक्षा 10 मनोविज्ञान विषय की परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते है उनके लिए यहां पर एनआईओएस कक्षा 10 मनोविज्ञान अध्याय 9 (विकास की प्रकृति और इसके निर्धारक) के लिए सलूशन दिया गया है. यह जो NIOS Class 10 Psychology Chapter 9 Nature and Determinants of Development दिया गया है वह आसन भाषा में दिया है . ताकि विद्यार्थी को पढने में कोई दिक्कत न आए. इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए आप NIOSClass 10 Psychology Chapter 9 विकास की प्रकृति और इसके निर्धारक के प्रश्न उत्तरों को ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे.
NIOS Class 10 Psychology Chapter9 Solution – विकास की प्रकृति और इसके निर्धारक
प्रश्न 1. “विकास”, “वृद्धि”, ” परिपक्वता” और ” विकास – क्रम” पदों में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर- हम जानते हैं कि माँ के गर्भ में बीजवपन और गर्भधारण से लेकर जन्म तक और फिर जन्म से जीवनपर्यंत व्यक्ति का विकास होता रहता है। इस प्रक्रिया में आंगिक वृद्धि और क्रिया अभ्यास से आने वाली व्यवहारगत परिपक्वता में अंतर होता है। अतः वृद्धि और परिपक्वता के अंतर को समझना आवश्यक है, जो जीवन में विकास प्रक्रिया के दौरान होते हैं। विकास में वृद्धि निश्चित रूप से शामिल होती है, लेकिन यह केवल मात्रात्मक बढ़ोतरी या परिवर्तन है। मानव शरीर में शारीरिक अंगों के अनुपात, आकार, कद और भार में होने वाले परिवर्तनों को नाप-तोल किया जा सकता है, साथ ही साथ विभिन्न अंगों के बनाट और दिखावे में भी।
वृद्धि के साथ-साथ विकास में भी अन्य गुणात्मक परिवर्तन होने लगते हैं। परिपक्वता भी विकासात्मक परिवर्तनों में शामिल है।
वास्तव में, परिपक्वता एक जैविक परिवर्तन है। यह भी आनुवंशिक है। मानव के अंतर्निहित गुणसूत्रों (जीन) में व्यवस्थित और पूर्वनिर्धारित श्रृंखला में होने वाले बदलावों का खाका होता है।
हम जानते हैं कि बच्चे के दूध के दांतों का टूटना, बच्चे का चलने की तैयारी करना, बालों का सफेद होना, आंखों का उम्र के दबाव में कमजोर पड़ना और अंगों का शिथिल होना, या फिर किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तनों, जैसे आवाज का भारी होना, किशोर का अपने आप को बड़ा मानने का भाव और सोच-समझ में वृद्धि, विकासात्मक परिवर्तनों के लिए व्यक्ति की जैविक प्रणाली को तैयार करने में कुछ समय लगता है। जैसे बच्चा जन्म लेते ही बोलने-चलने लगता है, उसे पाँच से सात महीने लगते हैं, जीवन का विकास भी समय पर पूरा होता है।
परिपक्वता और वातावरण दोनों ही व्यक्ति के विकास में बदलाव लाते हैं, इसलिए जैसे-जैसे शारीरिक अंगों का विकास (भौतिक विकास) होता है, समझ भी धीरे-धीरे विकसित होती है, जो अनुभव के साथ आयु क्रम में विकसित होती है। विकास के दोनों रूप हैं, लेकिन दोनों में अंतर है, क्योंकि शारीरिक वृद्धि अक्सर परिपक्वता के समय अनुपात से नहीं हो सकती। इसी तरह, शारीरिक विकास के बाद भी परिपक्वता का स्तर (डिग्री) अलग होता है। इसलिए विकास, वृद्धि और परिपक्वता अलग-अलग हैं।
प्रश्न 2. विकास के प्रमुख प्रभाव क्षेत्रों का उल्लेख करें।
उत्तर – विकास के प्रभाव क्षेत्रों के तीन वर्ग हैं-
(1) दैहिक और गतिक विकास- यह विकास का प्रथम क्षेत्र है। इस प्रभाव क्षेत्र में ये बदलाव शामिल हैं: शारीरिक आकार और ढाँचा, शरीर की कई प्रणालियों और उनके कार्यों में होने वाले बदलाव, मस्तिष्क का विकास, विभिन्न भावनाओं का विकास और गति में होने वाले बदलाव इत्यादि
(2) संज्ञानात्मक विकास – यह विकास का दूसरा प्रभाव क्षेत्र है। इसमें संज्ञानात्मक और बौद्धिक प्रक्रिया का विकास शामिल है । इसके अन्तर्गत निम्नलिखित को शामिल किया जाता है-स्मृति, अवधान, बुद्धि, शैक्षणिक ज्ञान, समस्या का समाधन, कल्पना, सृजनात्मकता तथा भाषा का विकास इत्यादि ।
(3) सामाजिक-संवेगात्मक विकास – यह विकास का तीसरा प्रभाव क्षेत्र है। इस प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत यह प्रतिरूपित किया जाता है कि हम अन्य व्यक्तियों के साथ अपने सम्बन्धों को केसे विकसित करते हैं। और जैसे-जैसे हमारी आयु बढ़ती जाती है, हमारे भीतर संवेग कैसे उत्पन्न एवं परिवर्तित होते है। इसमें जिन कारकों को सम्मिलित किया जाता है, वे हैं – संवेगात्मक सम्प्रेषण, आत्म-नियंत्रण, व्यक्तियों के बारे में उचित समझ, अन्तर्वैयक्तिक कौशल, मित्रता के सम्बन्ध बनाना तथा नैतिक विवेक शक्ति इत्यादि ।
प्रश्न 3. मानव विकास के प्रमुख चरणों की पहचान करें।
उत्तर- मानव विकास चरणबद्ध रूप में होता है और प्रत्येक चरण में व्यक्ति कुछ विशेषताएं, व्यवहार के तरीके, क्षमताएं और कार्य करने की कुछ विशेष प्रवृत्तियां प्रदर्शित करता है। ये प्रवृत्तियां बालपन से ही प्रारम्भ हो जाती हैं और प्रत्येक चरण की विकास प्रवृत्तियां एक- दूसरे चरण से भिन्न होती हैं। यह भी देखना होगा कि व्यक्ति में यह चरणबद्ध विकास भी धीमी गति से होता है और एक दिन से अगले दिन में कोई विशेष अन्तर नहीं झलकता, बल्कि समय-समय पर (जब झलकने योग्य हो जाता है) झलकता रहता है, जैसे- उदाहरण के लिए, युवावस्था में बालक के चेहरे पर मूंछों का उभरना तो 15 वर्ष की आयु में ही प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन झलकता तब है? जब मूंछें कुछ अधिक बाहरी काली रेखा – सी उभर आती हैं।
इसीलिए देखा यह गया है कि विकास के प्रत्येक चरण में अलग-अलग विकास कार्य शामिल होते हैं। विकास के चरणों और विकासात्मक कार्यों को देखने का व्यक्ति का नजरिया विभिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न हो सकता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि मानव विकास और जीवन-लक्ष्यों के प्रति व्यक्ति की सोच क्या है? विकास के चरणों की विशेषताएं
(i) व्यक्ति जीवन में विकास का प्रत्येक चरण पूर्व चरण में हुए विकास पर आधारित होता है। साथ ही इस विकास चरण में अगले चरण की तैयारी भी होती है। इस प्रकार प्रत्येक चरण पूर्व चरण में हुए विकास की दृढ़ता को दर्शाता है और आने वाले चरण के लिए पूर्व तैयारी का काम करता है।
(ii) एक चरण से दूसरे चरण के अन्तराल व्यक्ति की क्रियाशीलता के विभिन्न पहलुओं के विकास की दर अलग-अलग होती है । जैसे मस्तिष्क की कोशिकाओं में वृद्धि और शारीरिक गति कौशल का विकास प्रौढ़ावस्था की तुलना में शैशवावस्था में अधिक होता है। (iii) व्यक्ति-दर-व्यक्ति विकास एवं वृद्धि की दर में भी एक चरण से दूसरे चरण में भिन्न होती है ।
मानव – विकास के प्रमुख चरण- भारतीय जीवन दृष्टि में मानव-विकास के अन्तर्गत जीवन को प्रमुख चार चरणों में विभाजित करते हुए व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। यहाँ इन चरणों को आश्रम का नाम दिया है। सामान्यतः मानव जीवन चार अलग-अलग आश्रमों के रूप में वगीकृत किया गया है-
(i) ब्रह्मचर्याश्रम
(ii) गृहस्थाश्रम
(iii) वानप्रस्थ आश्रम
(iv) संन्यास आश्रम
यह विभाजन व्यक्ति की आयु का पूर्वानुमान 100 वर्ष मानकर किया गया है, जिसमें प्रत्येक आश्रम को 25 वर्ष के समयबद्ध क्रम में देखा गया है।
(i) ब्रह्मचर्याश्रम – बालक के जन्म से पांच वर्ष तक, आम तौर पर बालक की पहली घरेलू पाठशाला होती है। यहीं वह बोलना, चलना, चीजों को समझना और उनसे संबंध बनाना सीखता है। 5 वर्ष की आयु से बच्चों का शिक्षण दौर शुरू होता है। यह आयु-वर्ग (5 से 25 वर्ष) ब्रह्मचर्याश्रम कहलाता है। ब्रह्मचर्य चरण एक प्रशिक्षण प्रक्रिया है। इसमें बालक शिक्षक के साथ शिक्षा प्राप्त करता है। इस चरण की प्रमुख आवश्यकताएं हैं: सीखने के प्रति समर्पण, शुद्ध-पवित्र विचार, सहिष्णुता, गुरु सेवा, सादगी और आजीविका की पूर्व तैयारी के लिए लगन से ज्ञान प्राप्ति। इस चरण को पूरा करने के बाद व्यक्ति घरेलू काम करने को तैयार हो जाता है।
(ii) गृहस्थाश्रम – गृहस्थाश्रम में विधिवत प्रवेश करने के लिए ब्रह्मचर्याश्रम के बाद व्यक्ति आजीविका प्राप्त करके पूर्ण सक्षम हो जाता है। यह वास्तव में प्रौढ़ावस्था या एक वयस्क परिवार का पालन-पोषण करने का समय है। उस युग में व्यक्ति आध्यात्मिक विकास करता है, अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए प्रेम, सेवा और सद्गुणों के माध्यम से समाज और प्रकृति में अन्य लोगों के साथ सहकारितापूर्वक रहता है। भारतीय जीवन-दृष्टि के अनुसार, गृहस्थाश्रम करना व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति और सामाजिक खुशहाली के लिए अनिवार्य है। यह समय है जब एक व्यक्ति शादी करता है और परिवार को पालने-पोषण करने का काम करता है। वह बच्चों का विवाह करता है, आदि काम करता है।
(iii) वानप्रस्थाश्रम – 50 वर्ष तक (25-50) वर्ष अपने गृहस्थ जीवन में दायित्वों का समुचित ढंग से निर्वाह करने के बाद व्यक्ति अब वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करता है। इस समय (चरण में) घर वन में दूर रहता है और कठोर अनुशासन, संयम और तपस्या का पालन करता है। यह चरण वास्तव में घर-परिवार से दूर रहकर जीवन की सच्चाई की खोज करने की पूर्व-तैयारी है। तब व्यक्ति जीवन जगत से अलग होकर परम तत्त्व की खोज में लीन हो जाता है। गृहस्थाश्रम परिवार की आसक्ति पूरी तरह नहीं छूट पाती, इसलिए पूर्व-तैयारी काल में यह व्यवस्था भी दी गई है कि व्यक्ति चाहे तो पत्नी को साथ रख सकता है।
वह पत्नी को बिल्कुल छोड़ने का साहस नहीं कर पाता। पत्नी के साथ रहना घर के मोह से छुटकारा पाने के लिए एक छोर है, लेकिन व्यक्ति को साधु भाव से रहना चाहिए। वानप्रस्थाश्रम में रहते हुए उसे अपनी पत्नी को मित्र और सहयोगिनी के रूप में देखना होगा, न कि अभिसारिका के रूप में, जो यहाँ प्रावधान नहीं है। व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। ऐसे ही व्यवहार का अभ्यास उसे संन्यासाश्रम की अगली कड़ी के लिए तैयार करता है। इसलिए 50 से 75 वर्ष की उम्र में व्यक्तिगत आवश्यकताओं को नियंत्रित करने, अनुशासन, अनासक्ति और व्रतोतप का पालन करने पर बल दिया जाता है।
(iv) संन्यासाश्रम- संन्यास की अवधि, 75 वर्ष से मृत्युपर्यंत भौतिक वस्तुओं का पूरी तरह से त्याग की जीवनदानी परिधि है। इस अवधि में व्यक्ति को इच्छाओं से मुक्त, सभी जीवों के प्रति समानता का भाव रखना, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि के प्रति समान दृष्टिकोण रखना होता है। वस्तुतः एक संन्यासी मानव अस्तित्व की सीमाओं से ऊपर उठकर आत्मज्ञान और आध्यात्मिकता को प्राप्त करने के प्रति प्रयासरत रहता है। व्यक्ति का जीवन सिद्धान्त इन चरणों में इस अवधारणा पर आधारित है कि मानव अस्तित्व से आध्यात्मिक मुक्ति के प्रयास से पूर्व व्यक्ति शिक्षा, आजीविका, परिवार धर्म के दायित्वों का पूरी सामर्थ्य से निर्वाह करता हुआ अपनी जीवनयात्रा के इस अंतिम पड़ाव पर निश्चित भाव से अपने जीवन धर्म का निर्वाह कर सके ।
प्रश्न 4. विकास में प्रकृति और पालन-पोषण के परस्पर महत्त्व के संबंध में चर्चा करें।
उत्तर- मानव जीवन में परिवर्तन निरंतर होते रहते हैं, जन्म से मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। लेकिन ये अक्सर सीधे किसी संकेत से दिखाई देते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विकास धीरे-धीरे होता है; बल्कि, वे सिर्फ किसी विशिष्ट परिवर्तन या क्रिया के संकेत से झलकते हैं। उदाहरण के लिए, नवजात शिशु का विचार करें। भ्रूण रूप में भी बालक का विकास होता है, लेकिन गर्भवती माँ के पेट का आकार तीन से चार महीने बाद ही गर्भवती होने का संकेत देता है. जब बच्चा गर्भ से बाहर आता है, तो उसके विकास को एक दिन से दूसरे दिन देखना मुश्किल होता है क्योंकि विकास की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है।
एक दिन के बच्चे में कोई बदलाव नहीं दिखाई देगा, लेकिन एक महीने बाद उसे देखने पर फर्क स्पष्ट दिखाई देगा। यही कारण है कि जब कोई बच्चा अपना पहला करवट बदलता है, जमीन पर सरकता है, चलने के लिए पहला कदम रखता है या अपना पहला शब्द मुंह से बोलता है, तो विकास स्पष्ट झलकता है। बालक के विकास के क्रियाकलाप हमें आश्चर्यचकित करते हैं। विकास वास्तव में एक निरंतर प्रक्रिया है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह एक नाटकीय प्रक्रिया है और ये परिवर्तन निश्चित रूप से हो गए हैं।
परिवर्तन धीरे-धीरे होते रहते हैं और हर छोटा बदलाव पहले हुए बदलाव का एक हिस्सा होता है; उदाहरण के लिए, एक बच्चा हर दिन हाथ-पैर चलाता है, फिर एक करवट बदलता है या किसी चीज को देखकर उस पर निगाहें टिकाता है। फिर उसे पकड़ने के लिए सरकना चाहता है, हाथ-पैरों से जोर लगाकर सरकता है और सहारा लेकर खड़ा होने लगता है, जिसका अर्थ है कि बालक बिल्कुल नहीं चला गया। पहले हाथ-पैर चलाने से लेकर डग भरकर चलने तक के छोटे-छोटे बदलाव ही चलना शुरू करते हैं।
बालक का बोलना भी इसी तरह देखा जा सकता है। वह पहले तुतलाता, अटकता है, फिर स्पष्ट बोलने लगता है। वह हर दिन दूसरों को बोलते सुनता है और अपने कानों से सुनता है, इसमें भी योगदान देता है। इसलिए शिशु का पहला कदम शारीरिक और गतिशील विकास का परिणाम है। विकासात्मक श्रृंखला में प्रत्येक कड़ी एक दूसरी से जुड़ी हुई है। यह पिछली कड़ी से जुड़ा हुआ है, तो आगे की कड़ी से भी जुड़ा हुआ है; दूसरे शब्दों, यह पिछले परिवर्तनों से भी जुड़ा हुआ है। जैसे कि शिशु की पहली वाक्य भाषा उसकी पहले की सभी क्रियाओं का ही परिणाम है। इसके अलावा, यह जटिल अभिव्यक्ति कौशल के विकास और बौद्धिक विकास के दूसरे चरणों से जुड़ा हुआ है।
विकास में निरंतरता का मतलब कदापि नहीं है कि व्यक्ति के भीतर परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। नहीं, परिवर्तन सीधे नहीं होते। विशेषकर अचानक होने वाले विकास के पहलू भी परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। एक नवजात शिशु को पकड़कर फर्श पर चलाया जाता है, तो वह अपने पैरों को ऐसे हिलाने लगता है, मानो चलने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन एक या दो महीने बाद, उसके ये शारीरिक कार्य लुप्त हो जाते हैं. फिर आठ या नौ महीने बाद, जब वह वास्तव में चलना शुरू करता है, वे फिर से प्रकट होते हैं। यह विकास की अनिरन्तरता कहलाता है।इस प्रक्रिया में विकास क्रम की दृष्टि से कुछ मुख्य बातें उभरकर आती हैं-
• मानव विकास सामान्यतया जीवनपर्यंत चलने वाली निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें कुछ अनिरन्तरता और एकाएक परिवर्तन भी शामिल हैं।
• मानव-विकास एक संगठित तथा व्यवस्थित क्रम है।
• शारीरिक वृद्धि मात्रात्मक परिवर्तन है।
• विकास में वृद्धि और गुणात्मक परिवर्तन शामिल है।
• परिपक्वता परिवर्तन का आनुवांशिक रूप से योजनाबद्ध क्रम है।