Class 12th History Chapter 6. भक्ति-सूफी परंपराएँ
NCERT Solutions For Class 12th History Chapter- 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ – ऐसे छात्र जो कक्षा 12 इतिहास विषय की परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते है उनके लिए यहां पर एनसीईआरटी कक्षा 12th इतिहास अध्याय 6 (भक्ति-सूफी परंपराएँ) के लिए सलूशन दिया गया है.यह जो NCERT Solution For Class 12 History Chapter 6 Bhakti sufi parampara दिया गया है वह आसन भाषा में दिया है .ताकि विद्यार्थी को पढने में कोई दिक्कत न आए . इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है.इसलिए आपClass Class 12 History Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ के प्रश्न उत्तरों को ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे.
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 6 |
Chapter Name | भक्ति-सूफी परंपराएँ |
Category | Class 12 History Notes In Hindi |
Medium | Hindi |
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TextualQuestions)
उत्तर- संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकारों का अभिप्राय पूजा-प्रणालियों के समन्वय से है। इतिहासकारों के अनुसार यहाँ कम-से-कम दो प्रक्रियाएँ कार्यरत थीं। एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रसार की थी। इसका प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में थे। इस काल की दूसरी प्रक्रिया थी—स्त्रियों, शूद्रों तथा अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना। समाजशास्त्रियों का यह मानना है कि पूरे उपमहाद्वीप में अनेक धार्मिक विचारधाराएँ तथा पद्धतियाँ ‘‘महान्” संस्कृत पौराणिक परंपरा तथा ‘‘लघु” परंपरा के बीच हुए निरंतर संवाद का परिणाम है।
इस प्रक्रिया का सबसे अच्छा उदाहरण पुरी (उड़ीसा) में मिलता है जहाँ 12वीं शताब्दी तक आते-आते मुख्य देवता को जगन्नाथ (सम्पूर्ण पृथ्वी का स्वामी) के रूप में प्रस्तुत किया गया और उन्हें विष्णु का एक रूप माना गया। समन्वय के ऐसे उदाहरण देवी संप्रदायों में भी मिलते हैं। देवी की उपासना प्रायः सिंदूर से पोते गए पत्थर के रूप में की जाती थी। स्थानीय देवियों को पौराणिक परंपरा के भीतर मुख्य देवताओं की पत्नी के रूप में मान्यता दी गई थी। कभी वह लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी बनीं तो कभी वह शिव की पत्नी पार्वती के रूप में सामने आईं।
उत्तर- उप-महाद्वीप में भिन्न-भिन्न मुस्लिम शासकों ने अनेक मसजिदों का निर्माण करवाया। इन मसजिदों की स्थापत्य कला में स्थानीय परंपराओं के साथ एक सार्वभौमिक धर्म का जटिल मिश्रण मसजिदों की स्थापत्य कला में दिखाई देता है। मसजिदों के कुछ स्थापत्य संबंधी तत्व सभी जगह एक समान थे; जैसे कि इमारत का मक्का की ओर संकेत करना जो मेहराब (प्रार्थना का आला) तथा मिनबार (व्यासपीठ) की स्थापना से लक्षित होता था। परंतु बहुत-से तत्व ऐसे थे जिनमें भिन्नता दिखाई देती है जैसे छत और निर्माण की सामग्री।
उदाहरण के लिए 13वीं शताब्दी में केरल में बनी एक मसजिद की छत मंदिर के शिखर से मिलती-जुलती है। इसके विपरीत बांग्लादेश की अतिया मसजिद की छत गुंबददार है।
इसी प्रकार अतिया मसजिद ईंटों से बनी है। परंतु श्रीनगर की झेलम नदी के किनारे बनी शाह हमदान मसजिद में कश्मीरी लकड़ी प्रयोग में लाई गई है।
अथवा
बे-शरिया और बा-शरिया सूफ़ी परंपराओं के बीच एक अंतर और एक समानता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- अंतर-बे-शरिया, शरिया (इस्लामी कानून) का पालन नहीं करते थे, जबकि बा-शरिया, शरिया का पालन करते थे।
एकरूपता अथवा समानता-बे-शरिया तथा बा-शरिया दोनों ही इस्लाम धर्म से संबंध रखते थे।
उत्तर- अलवार और नयनार तमिलनाडु के भक्ति संत थे। अलवार विष्णु के तथा नयनार शिव के भक्त थे। (1) कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अलवार और नयनार संतों ने जाति-प्रथा तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध आवाज़ उठाई। कुछ सीमा तक यह बात सत्य प्रतीत होती है क्योंकि भक्ति संत विविध समुदायों से थे; जैसे—ब्राह्मण, शिल्पकार, किसान आदि। | अलवार और नयनार संतों की रचनाओं को वेदों के समान महत्त्वपूर्ण बताकर इस परंपरा को सम्मानित किया गया। उदाहरण के लिए अलवार संतों के एक मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबंधम् का उल्लेख तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस प्रकार इस ग्रंथ का महत्त्व संस्कृत के चारों वेदों के समान बताया गया।
(2) वीर शैव कर्नाटक से संबंध रखते थे। वे बासवन्ना के अनुयायी थे। उन्होंने जाति तथा कुछ समुदायों के ‘दूषित’ होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध किया।
उत्तर-कबीर-कबीर संत कवियों में विशेष स्थान रखते हैं। उनके मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं
(1) उन्होंने बहुदेववाद तथा मूर्ति-पूजा का खंडन किया।
(2) उन्होंने ज़िक्र और इश्क के सूफ़ी सिद्धांतों के प्रयोग द्वारा नाम सिमरन’ पर बल दिया।
(3) कबीर के अनुसार परम सत्य अथवा परमात्मा एक है, भले ही विभिन्न संप्रदायों के लोग उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं।
(4) उन्होंने परमात्मा को निराकार बताया।
(5) उनके अनुसार भक्ति के माध्यम से मोक्ष अर्थात् मुक्ति प्राप्त हो सकती है।
(6) उन्होंने हिंदुओं तथा मुसलमानों दोनों के धार्मिक आडंबरों का विरोध किया।
(7) वह जातीय भेदभाव के विरुद्ध थे।
विचारों का संप्रेषण-कबीर ने अपने विचारों को काव्य की आम बोलचाल की भाषा में व्यक्त किया जिसे आसानी से समझा जा सकता था। कभी-कभी उन्होंने बीज लेखन की भाषा का प्रयोग भी किया जो कठिन थी। उनके देहांत के बाद उनके अनुयायियों ने अपने प्रचार-प्रसार द्वारा उनके विचारों का संप्रेषण किया।
बाबा गुरु नानक देव जी-श्री गुरु नानक देव जी (1469-1539) का जन्म पंजाब के ननकाना गाँव में एक व्यापारी परिवार में हुआ। यह गाँव अब पाकिस्तान में है। उन्होंने फ़ारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनका विवाह छोटी आयु में ही हो गया था। परंतु वह अपना अधिकतर समय सूफ़ी तथा भक्ति संतों के बीच बिताते थे। उन्होंने दूर-दूर तक की यात्राएँ भी कीं। उनके मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं
(1) उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने धर्म के सभी बाहरी आडंबरों का खंडन किया; जैसे-यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति-पूजा तथा कठोर तप ।
(2) उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी नकारा।
(3) उनके लिए परमपूर्ण रब (परमात्मा) का कोई लिंग या आकार नहीं था।
(4) उन्होंने रब की उपासना के लिए एक सरल उपाय बताया और वह था उनका निरंतर स्मरण व नाम का जाप। विचारों का संप्रेषण-गुरु नानक देव जी ने अपने विचार पंजाबी भाषा में शबद के माध्यम से लोगों के सामने रखे। वह ये शबद अलगअलग रागों में गाते थे और उनका सेवक मरदाना रबाब बजाकर उनका साथ देता था।
उत्तर- इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोगों का झुकाव रहस्यवाद तथा वैराग्य की ओर बढ़ने लगा। इन लोगों को सूफ़ी कहा गया। सूफ़ी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों तथा आचारों का वर्णन इस प्रकार है :
(1) सूफ़ियों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की। उन्होंने कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की।
(2) उन्होंने मुक्ति पाने के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया।
(3) उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने की शिक्षा दी।
(4) वे किसी औलिया या पीर की देख-रेख में जिक्र (नाम का जाप) चिंतन, समा (गाना), रक्स (नृत्य), नीति-चर्चा, साँस पर नियंत्रण आदि क्रियाओं द्वारा मन को प्रशिक्षित करने के पक्ष में थे।
(5) वे सदाचारिता और मानव के प्रति दयालुता पर बल देते थे।
(6) वे सूफ़ी संतों की दरगाहों पर ज़ियारत (तीर्थयात्रा) करते थे। नाच और संगीत भी जियारत के भाग थे। विशेषकर कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान, ताकि अलौकिक आनंद की भावना को उभारा जा सके। सूफ़ी संत जिक्र (ईश्वर का नाम-जाप) या फिर समा (श्रवण करना) अर्थात् आध्यात्मिक संगीत की महफिल द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे।
(7) (i) सूफ़ियों के अनुसार ईश्वर एक है। सभी जीव उसी से उत्पन्न होते हैं। इसलिए सभी जीव एकसमान हैं।
(ii) सूफ़ी मत के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उसका निवास सृष्टि के कण-कण में है।
(iii) सूफ़ी संतों का विचार है कि हमें सच्चे मन से प्रभु-भक्ति करनी चाहिए। यदि मनुष्य प्रभु प्रेम में मग्न हो जाए तो वह उसे शीघ्र ही पा सकता है।
(iv) सूफ़ी संतों का कहना है कि मनुष्य को अपना सब कुछ ईश्वर की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। (१) सूफ़ी मत में मुर्शीद (गुरु) को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। मुर्शीद ही मनुष्य को सच्चा मार्ग दिखाता है। (vi) सूफ़ी मत के अनुसार मनुष्य को सांसारिक पदार्थों के साथ मोह नहीं करना चाहिए।
(vii) सूफ़ी मत के अनुसार मानव सेवा तथा जरूरतमंद लोगों की सहायता करना प्रभु-भक्ति करने के समान है। इसी उद्देश्य से शेख निज़ामुद्दीन औलिया के ख़ानक़ाह में एक सामुदायिक रसोई (लंगर) चलाई जाती थी जो फुतूह (बिना मांगी खैर) पर चलती थी। सुबह से देर रात तक चलने वाली इस रसोई में सभी वर्गों के लोग भोजन करते थे।
उत्तर-अलवार तथा नयनार और चोल शासक– नयनार और अलवार संतों का वेल्लाल कृषकों में काफ़ी सम्मान था। इसलिए शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन के लिए भव्य मंदिरों का निर्माण कराया। इन मंदिरों में पत्थर और धातु से बनी मूर्तियाँ सुसज्जित थीं। इस प्रकार उन्होंने जन-भाषा में गीत रचने वाले इन संत-कवियों की परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान किया। चोल सम्राटों ने इन मंदिरों में तमिल भाषा में शैव भजनों का गायन भी आरंभ किया। उन्होंने इन भजनों का संकलन एक ग्रंथ (तवरम) के रूप में करने का भी जिम्मा उठाया। 945 ईसवी के एक अभिलेख से पता चलता है कि चोल सम्राट् परांतक प्रथम ने संत कवि अप्पार संबंदर तथा सुंदरार की धातु की मूर्तियाँ एक शिव मंदिर में स्थापित करवाई थीं। इन मूर्तियों को इन संतों के उत्सवों में एक जुलूस में निकाला जाता था।
उत्तर- भक्ति तथा ‘सूफ़ी चिंतकों ने अपने विचारों को आम जनता तक पहुँचाने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। ये भाषाएँ प्रायः स्थानीय थीं, जिन्हें समझना साधारण लोगों के लिए आसान था। यदि संत कवि कुछ विशिष्ट भाषाओं का ही प्रयोग करते रहते, तो उनके विचारों का संप्रेषण कभी नहीं होता और ये उनके साथ ही विलुप्त हो गए होते। अत: स्थानीय भाषाओं को अपनाना विचारों के प्रवाह में महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। (भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ-धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ (लगभग आठवीं से अठारहवीं सदी तक)
उदाहरण- (1) अलवार तथा नयनार संतों ने अपना प्रचार तमिल भाषा में किया।
(2) भक्त कबीर के भजन अर्थात् दोहे तथा छंद कई भाषाओं में मिलते हैं। इनमें से कुछ संत भाषा में हैं जो निर्गुण कवियों की विशेष बोली थी।
(3) सूफ़ी संतों ने भी स्थानीय भाषाओं को अपनाया। उदाहरण के लिए बाबा फ़रीद ने पंजाबी भाषा को अपनाया।
(4) श्री गुरु नानक देव जी ने पंजाबी भाषा में अपना प्रचार किया।
उत्तर- (1) चतुर्वेदी ब्राह्मण चारों वेदों के ज्ञाता थे। वे भगवान विष्णु की सेवा के प्रति निष्ठा नहीं रखते थे। इसलिए भगवान विष्णु को वे दास अधिक प्रिय थे जो उनके चरणों से प्रेम रखते थे।
(2) दास वर्ण-व्यवस्था में शामिल नहीं थे।
(3) ब्राह्मण साँप की पत्थर की मूर्ति पर दूध चढ़ाते थे, परंतु वास्तविक साँप को देखते ही वे उसे मारने पर उतारू हो जाते थे। ऐसा ही आडंबर भोजन खिलाने में करते थे। वे पत्थर से बनी ईश्वर की मूर्ति को तो भोजन परोसते थे, जबकि वह खा ही नहीं सकती थी, परंतु किसी भूखे सेवक को भोजन देने से साफ़ इंकार कर देते थे, जबकि वह खा सकता था।
(4) मुग़ल शासक, विशेषकर अकबर सभी धर्मों का आदर करते थे और उन्हें सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान करते थे। सभी धर्मों के लोगों को अपने पूजा-स्थलों के निर्माण की अनुमति थी। औरंगजेब भी संत कबीर अन्य संप्रदायों के धर्म-गुरुओं की समय-समय पर सहायता करता था।
भक्ति-सूफी परंपराएँ के अति लघु उत्तरीय प्रश्न
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