Class 12th History Chapter 10. उपनिवेशवाद और देहात
NCERT Solutions For Class 12th History Chapter- 10 उपनिवेशवाद और देहात – जो विद्यार्थी 12th कक्षा में पढ़ रहे है ,उन सब का सपना होता है कि वे बारहवी में अच्छे अंक से पास हो ,ताकि उन्हें आगे एडमिशन या किसी नौकरी के लिए फॉर्म अप्लाई करने में कोई दिक्कत न आए .इसलिए आज हमने इस पोस्ट मेंएनसीईआरटी कक्षा 12 इतिहास अध्याय 10 (उपनिवेशवाद और देहात) का सलूशन दिया गया है जोकि एक सरल भाषा में दिया है .क्योंकि किताब से कई बार विद्यार्थी को प्रश्न समझ में नही आते .इसलिए यहाँ NCERT Solutions History For Class 12th Chapter 10 Colonialism and the countryside दिया गया है. जो विद्यार्थी 12th कक्षा में पढ़ रहे है उन्हें इसे अवश्य देखना चाहिए . इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए आप Ch .10 उपनिवेशवाद और देहात के प्रश्न उत्तरों ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | HISTORY |
Chapter | Chapter 10 |
Chapter Name | उपनिवेशवाद और देहात |
Category | Class 12 History Notes In Hindi |
Medium | Hindi |
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
अथवा
गाँवों में जोतदारों की शक्ति, जमींदारों की शक्ति की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली कैसे होती थी? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
18वीं शताब्दी के आखिर में बंगाल में जोतदारों ने जमींदारों के अधिकारों को नि:संदेह कमज़ोर कर दिया।’ कथन के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर– ग्रामीण बंगाल के बहुत-से इलाकों में जोतदार काफ़ी शक्तिशाली थे। वे जमींदारों से भी अधिक प्रभावशाली थे। उनके शक्तिशाली होने के निम्नलिखित कारण थे
(1) 19वीं शताब्दी के आरंभ तक धनी किसानों के इस वर्ग ने बड़े-बड़े भागों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। कुछ जोतदारों के भू-भाग तो हज़ारों एकड़ में फैले थे।
(2) स्थानीय व्यापार तथा साहूकारी कारोबार पर भी उनका नियंत्रण था। इस प्रकार वे अपने क्षेत्र के ग़रीब काश्तकारों (किसानों) पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे।
(3) ज़मींदारों के विपरीत जोतदार शहरों में रहने की बजाय गाँवों में ही रहते थे। फलस्वरूप ग़रीब गाँववासियों के एक बड़े वर्ग पर उनका नियंत्रण बना रहता था।
(4) जोतदार ज़मींदारों द्वारा गाँव की जमा (लगान) को बढ़ाने के लिए किए गए प्रयासों का विरोध करते थे।
उत्तर– ज़मींदार अपनी ज़मींदारियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए कई प्रकार के हथकंडे अपनाते थे
(1) अपनी भू-संपदा की बिक्री के समय उनके अपने ही आदमी ऊँची बोली लगाकर ज़मींदारी (भू-संपदा) को खरीद लेते थे। बाद में वे खरीद की राशि चुकाने से इनकार कर देते थे। इस प्रकार ज़मींदारी ज़मींदार के नियंत्रण में ही रहती थी।
(2) फ़र्जी बिक्री के कारण ज़मींदारी को बार-बार बेचना पड़ता था। बार-बार बोली लगाने से सरकार तथा बोली लगाने वाले दोनों ही थक जाते थे। जब कोई भी बोली नहीं लगाता था, तो सरकार को वह जमींदारी पुराने ज़मींदार को ही कम कीमत पर बेचनी पड़ती थी।
(3) कंपनी के निर्णय के अनुसार स्त्रियों से उनकी संपत्ति को नहीं छीना जा सकता था। अत: ज़मींदार अपनी ज़मींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता अथवा परिवार की किसी अन्य महिला सदस्य के नाम पर कर देते थे, ताकि उस पर उनका नियंत्रण बना रहे।
(4) जब कोई नया खरीददार ज़मींदारी खरीद लेता था, तो पुराने जमींदार के ‘लठियाल’ मारपीट कर उसे भगा देते थे।
(5) कभी-कभी स्वयं रैयत नए खरीददार को ज़मीन में नहीं घुसने देते थे।
अथवा
राजमहल की पहाड़ियों में रहने वाले पहाड़िया लोगों को पहाड़ियों में भीतर की ओर चले जाने पर क्यों मजबूर किया गया? इसका उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– पहाड़िया लोग बाहर से आने वाले लोगों को संदेह तथा अविश्वास की दृष्टि से देखते थे। अत: जब संथाल राजमहल की पहाड़ियों पर बसे तो पहले पहाड़िया लोगों ने इसका प्रतिरोध किया। परंतु धीरे-धीरे उन्हें पहाड़ियों में भीतर की ओर चले जाने के लिए विवश कर दिया गया। उन्हें निचली पहाड़ियों तथा घाटियों में नीचे की ओर आने से रोक दिया गया। अतः वे ऊपरी पहाड़ियों के चट्टानों एवं अधिक बंजर प्रदेशों तथा भीतरी शुष्क भागों तक सीमित होकर रह गए। इसका उनके रहन-सहन तथा जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा। अंतत: वे ग़रीब हो गए। झूम खेती के लिए नयी-से-नयी उपजाऊ जमीनें चाहिए थीं। परंतु अब ऐसी ज़मीनें उनके लिए दुर्लभ हो गईं क्योंकि वे अब दामिन-ए-कोह का भाग बन चुकी थीं। इसलिए पहाड़िया लोग अपनी झूम खेती को सफलतापूर्वक जारी नहीं रख सके। जब इस क्षेत्र के जंगल खेती के लिए साफ़ कर दिए गए तो पहाड़िया शिकारियों को भी समस्याओं का सामना करना पड़ा।
अथवा
अठारहवीं शताब्दी के दौरान संथालों ने अंग्रेजों तथा जमींदारों का प्रतिरोध क्यों किया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– संथालों को स्थायी कृषि के लिए राजमहल की पहाड़ियों में ‘दामिन-ए-कोह’ के नाम से भूमि दी गई थी। वे एक जगह स्थायी रूप से बस गए थे और बाजार के लिए कई प्रकार की वाणिज्यिक फ़सलों की खेती करने लगे थे। वे व्यापारियों तथा साहूकारों के साथ लेन-देन भी करने लगे थे। परंतु उन्हें शीघ्र ही इस बात का आभास हो गया। उन्होंने जिस भूमि पर खेती करनी शुरू की थी वह उनके हाथों से निकलती जा रही है। इसके कई कारण थे
(i) संथालों ने जिस जमीन को साफ़ करके खेती शुरू की थी उस पर सरकार (राज्य) भारी कर लगा रही थी।
(ii) साहूकार (दिकू) उनके ऋण पर बहुत ऊँची दर पर ब्याज लगा रहे थे।
(iii) ऋण न चुका पाने की दशा में वे उनकी जमीन पर कब्ज़ा कर रहे थे।
(iv) जमींदार लोग संथालों के प्रदेश दामिन-ए-कोह पर अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे।
अत: 1850 के दशक तक, संथाल लोग यह अनुभव करने लगे थे कि अपने लिए एक आदर्श संसार का निर्माण करने के लिए, उनका अपना शासन होना आवश्यक है। इसलिए उन्होंने ज़मींदारों, साहूकारों और औपनिवेशक राज के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
अथवा
1830 के पश्चात् ऋणदाताओं द्वारा ऋण देने से इनकार करने पर रैयत समुदाय द्वारा अनुभूत अन्याय की तर्कसंगत समीक्षा।
उत्तर– दक्कन के रैयत निम्नलिखित कारणों से ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध थे
(1) ऋणदाताओं ने किसानों के ऋण देने से इनकार कर दिया था। किसानों को लगता था कि ऋणदाता संवेदनहीन हो गया है जो उनकी रक्षा पर तरस नहीं खाता।
(2) ऋणदाता देहात के परंपरागत मानकों तथा रिवाजों का उल्लंघन कर रहे थे। उदाहरण के लिए ब्याज की राशि मूलधन से अधिक नहीं हो सकती थी। परंतु ऋणदाता इस मानक की धज्जियाँ उड़ा रहे थे। एक मामले में ऋणदाता ने ₹100 के मूलधन पर ₹2,000 से भी अधिक ब्याज लगा रखा था। |
(3) बिना चुकाई गई ब्याज की राशि को नए बंधपत्रों में शामिल कर लिया जाता था, ताकि ऋणदाता कानून के शिकंजे से बचा रहे और उसकी राशि भी न डूबे।।
(4) ऋण चुकाते समय किसान को कोई रसीद नहीं दी जाती थी।
(5) ऋणदाता बंधपत्रों में जाली आँकड़े भर लेते थे। वे किसानों की फ़सल को नीची कीमतों पर खरीदते थे और अंततः उनकी | धन-संपत्ति पर अधिकार कर लेते थे।
उत्तर– (1) इस्तमरारी बंदोबस्त 1793 में लागू हुआ था। इसके अनुसार जमींदारों को एक निश्चित राजस्व राशि कंपनी को देनी होती थी। यह राशि उसे एक निश्चित समय तक चुकानी होती थी। ऐसा न कर पाने की स्थिति में उसकी ज़मींदारी नीलाम कर दी जाती थी। (2) ज़मींदारों को अपनी ज़मींदारी पर खेती करने वाले किसानों से कर वसूली का अधिकार था। परंतु अधिकांश ज़मींदार रैयतों से समय पर कर वसूल कर पाने के कारण पूरी राजस्व राशि नहीं चुका पाते थे। कुछ जमींदार जान-बूझकर भी राजस्व अदा नहीं करते थे। फलस्वरूप उन पर बकाया राशि लगातार बढ़ रही थी। कंपनी उसे लंबे समय तक सहन नहीं कर सकती थी। अत: राजस्व घाटे को पूरा करने के लिए अधिकतर जमींदारियाँ नीलाम कर दी गईं।
उत्तर– पहाड़िया लोगों की आजीविका–
(1) पहाड़िया लोग झूम खेती करते थे। वे भूमि के एक टुकड़े को साफ़ करके उस पर कुछ समय के लिए खेती करते थे। जब भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती थी, तो वे भूमि का कोई और टुकड़ा साफ़ करके खेती करने लगते थे।
(2) पहाड़िया लोग अपने खाने के लिए दालें तथा ज्वार-बाजरा आदि उगाते थे।
(3) जंगलों से पहाड़िया लोग खाने के लिए महुआ के फूल इकट्ठे करते थे। इसके अतिरिक्त बेचने के लिए रेशम के कोया और राल तथा काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करते थे।
(4) पेड़ों के नीचे जो छोटे-छोटे पौधे उग आते थे या परती ज़मीन पर जो घास-फूस उग आती थी वह उनके पशुओं के लिए चरागाह बन जाती थी।
(5) पहाड़िया लोग खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे। वे हल के प्रयोग से संकोच करते थे।
(6) वे जंगल में शिकार भी करते थे।
(7) पहाड़ियों को अपना मूलाधार बनाकर, पहाड़िया लोग उन मैदानों पर आक्रमण करते थे जहाँ किसान स्थायी खेती करते थे। पहाड़ियों द्वारा ये आक्रमण मुख्यतः अपने आप को अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे।
(8) मैदानों में रहने वाले ज़मींदारों को प्रायः पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप से ख़िराज देकर अपने आप को सुरक्षित रखना पड़ता था। इसी प्रकार, व्यापारी भी इन पहाड़ियों द्वारा नियंत्रित रास्तों का प्रयोग करने के लिए उन्हें कुछ पथकर दिया करते थे। इस कर के बाद पहाड़िया लोग व्यापारियों की रक्षा करते थे और यह भी आश्वासन देते थे कि कोई भी उनके माल को नहीं लूटेगा।
संथालों की आजीविका–(1) संथाल लोग एक जगह रहकर स्थायी कृषि करते थे।
(2) वे खेती के लिए हल का प्रयोग करते थे।
(3) वे चावल, कपास, तंबाकू तथा सरसों जैसी नकदी फ़सलें उगाते थे।
(4) संथाल व्यापारियों तथा साहूकारों के साथ लेन-देन भी करते थे।
उत्तर–अमेरिकी गृह युद्ध आरंभ होने से कपास की कीमतों में वृद्धि हुई, जिसके कारण कपास की मांग भारत में भी बढ़ गई। इससे किसानों को अच्छा पैसा मिला तथा उनकी आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार हुआ। कपास में तेजी आने से मुंबई के व्यापारियों द्वारा ज्यादा लाभ कमाने के लिए तथा कपास की खेती के लिए रैयतों को प्रोत्साहन दिया जाने लगा , जिससे कृषकों को भारी मात्रा में ऋण मिलने लगा। इन ऋणों में ज्यादातर ऋण दीर्घकालीन था।
ऋणों की प्राप्ति से रैयतों की खेती के सामान जैसे- हल, बीज , बैल इत्यादि खरीदने में आसानी हो गई। सामानों की प्रचुरता से उत्पादन में वृद्धि हुई, जिसका लाभ कृषकों के साथ-साथ सब व्यापारियों को भी मिला।
कपास उगाए जाने वाली जमीनों पर एक 1 एकड़ के लिए ₹100 तक का ऋण व्यापारियों द्वारा दिया जाने लगा। इससे उत्पादन में तो सुधार हुआ ही साथ साथ कृषकों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ। कुछ बड़े वर्ग के लोग तक बड़े किसान छोटे किसानों की अपेक्षा ज्यादा लाभ अर्जित करने में कामयाब रहे थे।
कुछ छोटे स्तर के किसान जिनके पास जमीनें कम थी उन लोगों ने अग्रिम राशियां तो ले ली, लेकिन उत्पादन की कमी के कारण इन लोगों पर ऋण का बोझ बढ़ता गया। अमेरिकी महायुद्ध समाप्त होते ही कपास की मांग में तेजी से गिरावट होने लगी , जिससे रैयतों की स्थिति खराब हो गई।
जिन किसानों ने भारी अग्रिम राशियां ले रखी थी , उनके लिए और बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई थी । इन राशियों को चुकाने के लिए इन्हें साहूकारों तथा ऋणदाताओं के पास जाना पड़ा।
उत्तर– सरकारी स्रोतों में सरकारी सर्वेक्षण तथा रिपोटें आदि शामिल हैं। इनमें दी गई जानकारी सरकारी दृष्टिकोण तथा सरकार के हित से प्रेरित होती है। इनमें किसी घटना के लिए सरकार को दोषी ठहराने की बजाए विरोधी पक्ष को दोषी सिद्ध करने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए दक्कन दंगा आयोग से विशेष रूप से यह जाँच करने के लिए कहा गया था कि क्या सरकारी राजस्व की माँग का स्तर किसानों के क्रोध का कारण था। सभी साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद आयोग ने यह सूचित किया था कि सरकारी माँग किसानों के क्रोध का कारण नहीं थी। इसमें सारा दोष ऋणदाताओं अथवा साहूकारों का ही था। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि औपनिवेशिक सरकार यह मानने को कदापि तैयार नहीं थी कि किसानों में असंतोष अथवा उनका रोष कभी सरकारी कार्यवाही के कारण उत्पन्न हुआ था।
सच तो यह है कि सरकारी रिपोर्टे इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए बहुमूल्य स्रोत तो हैं। परंतु उनका उपयोग करने से पहले उनका सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना आवश्यक है।
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